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औपपातिक-५१
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विशेषवश भिक्षा में केवल कमल लेनेवाले, प्रत्येक घर से भिक्षा लेनेवाले, जब बिजली चमकती हो तब भिक्षा नहीं लेनेवाले, मिट्टी से बने नांद जैसे बड़े बर्तन में प्रविष्ट होकर तप करनेवाले, वे ऐसे आचार द्वारा विहार करते हुए बहुत वर्षों तक आजीवक-पर्याय का पालन कर, मृत्यु-काल आने पर मरण प्राप्त कर, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है । वे आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है ।।
___ ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे-आत्मोत्कर्षक, परपरिवादक, भूतिकर्मिक, कौतुककारक । वे इस प्रकार की चर्या लिये विहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं । अपने गृहीत पर्याय का पालन कर वे अन्ततः अपने पाप-स्थानों की आलोचना नहीं करते हुए, उनसे प्रतिक्रान्त नहीं होते हुए, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट अच्युत कल्प में आभियोगिक देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं | वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । उनकी स्थिति बाईस सागरोपमप्रमाण होती है । वे परलोक के आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है ।
ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये निह्नव होते हैं, जैसे-बहरत, जीवप्रादेशिक, अव्यक्तिक, सामुच्छेदिक, द्वैक्रिय, त्रैराशिक तथा अबद्धिक, वे सातों ही जिन-प्रवचन का अपलाप करनेवाले या उलटी प्ररूपणा करनेवाले होते हैं । वे केवल चर्या आदि बाह्य क्रियाओं तथा लिंग में श्रमणों के सदृश होते हैं । वे मिथ्यादृष्टि हैं । असद्भाव-निराधार परिकल्पना द्वारा, मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा अपने को, औरों को दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए-अतथ्यपरक संस्कार जमाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं । मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट ग्रैवेयक देवों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है । वहाँ उनकी स्थिति इकतीस सागरोपम-प्रमाण होती है । वे परलोक के आराधक नहीं होते । अवशेष वर्णन पूर्ववत् है ।
ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह, धार्मिक, धर्मानुग, धर्मिष्ठ, धर्माख्यायी, धर्मप्रलोकी, धर्मप्ररंजन, धर्मसमुदाचार, सुशील, सुव्रत, सुप्रत्यानन्द, वे साधुओं के पास यावत् स्थूल रूप में जीवनभर के लिए हिंसा से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, प्रेय से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, रति-अरति से तथा मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः-अनिवृत्त होते हैं, अंशतः-आरम्भ-समारम्भ से विरत होते हैं, अंशतः-अविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए अंशतः किसी क्रिया के करने-कराने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवनभर के लिए अंशतः पकाने, पकवाने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए कूटने, पीटने, तर्जित करने, ताड़ना करने, वध, बन्ध, परिक्लेश अशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं. वे जीवनभर के लिए स्नान. मर्दन. वर्णक. विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला तथा अलंकार से अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, इसी प्रकार और भी पापमय प्रवृत्ति युक्त, छल-प्रपंच युक्त, दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुँचानेवाले कर्मों से जीवनभर के लिए अंशतः प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं ।
ऐसे श्रमणोपासक होते हैं, जिन्होंने जीव, अजीव आदि पदार्थों का स्वरूप भली भांति समझा है, पुण्य पाप का भेद जाना है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध एवं मोक्ष को भलीभाँति अवगत किया है, किसी दूसरे की सहायता के अनिच्छुक हैं जो देव,