Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 186
________________ औपपातिक-३१ १८५ तब नरसिंह, नरपति, परिपालक, नरेन्द्र, परम ऐश्वर्यशाली अधिपति, नरवृषभ, मनुजराजवृषभ, उत्तर भारत के आधे भाग को साधने में संप्रवृत्त, भंभसारपुत्र राजा कूणिक ने जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ जाने का विचार किया, प्रस्थान किया । अश्व, हस्ती, रथ एवं पैदल-इस प्रकार चतुरंगिणी सेना उसके पीछे-पीछे चल रही थी । राजा का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित तथा प्रीतिकार था । उसका मुख कुण्डलों से उद्योतित था । मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था । राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से वह अत्यन्त दीप्तिमय था । वह उत्तम हाथी पर आरूढ हुआ । कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था । श्रेष्ठ, श्वेत चंवर डुलाये जा रहे थे । वैश्रमण, नरपति, अमरपति के तुल्य उसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसकी कीर्ति विश्रुत थी । भंभसार के पुत्र राजा कूणिक के आगे बड़े बड़े घोड़े और घुड़सवार थे । दोनों ओर हाथी तथा हाथियों पर सवार पुरुष थे । पीछे स्थ-समुदाय था । तदनन्तर भंभसार का पुत्र राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीचोंबीच होता हुआ आगे बढ़ा । उसके आगे आगे जल से भरी झारियाँ लिये पुरुष चल रहे थे । सेवक दोनों ओर पंखे झल रहे थे । ऊपर सफेद छत्र तना था । चंवर ढोले जा रहे थे । वह सब प्रकार की समृद्धि, सब प्रकार की द्युति, सब प्रकार के सैन्य, सभी परिजन, समादरपूर्ण प्रयत्न, सर्व विभूति, सर्वविभूषा, सर्वसम्भ्रम, सर्व-पुष्प गन्धमाल्यालंकार, सर्व तूर्य शब्द सन्निपात, महाऋद्धि, महाद्युति, महाबल, अपने विशिष्ट पारिवारिक जन-समुदाय से सुशोभित था तथा शंख, पणव, पटह, छोटे ढोल, भेरी, झालर, खरमुही, हुडुक्क, मुरज, मृदंग तथा दुन्दुभि एक साथ विशेष रूप से बजाए जा रहे थे । [३२] जब राजा कणिक चंपा नगरी के बीच से गजर रहा था. बहत से अभ्यर्थी, कामार्थी. भोगार्थी. लाभार्थी किल्बिषिक कापालिक. करबाधित. शांखिक. चाक्रिक. लांगलिक. मुखमांगलिक, वर्धमान, पूष्यमानव, खंडिकगण, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, मनोभिराम, हृदय में आनन्द उत्पन्न करनेवाली वाणी से एवं जय विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरत अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोले-जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, आपकी जय हो । जन-जन के लिए कल्याणस्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों । आपका कल्याण हो । जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें । जिनको जीत लिया है उनका पालन करें । उनके बीच निवास करें । देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागों में धरणेन्द्र की तरह, तारों में चन्द्रमा की तरह, मनुष्यों में चक्रवर्ती भरत की तरह आप अनेक वर्षों तक, अनेक शतवर्षों तक, अनेक सहस्रवर्षों तक, अनेक लक्ष वर्षों तक अनघसमग्र सर्वथा सम्पन्न, हृष्ट, तुष्ट रहें और उत्कृष्ट आयु प्राप्त करें | आप अपने प्रियजन सहित चंपानगरी के तथा अन्य बहुत से ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोण-मुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संवाह, सन्निवेश, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्त्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञेश्वरत्व-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करते हुए निर्बाध अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य एवं घनमृदंग के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्दित होते हुए, विपुल अत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जय-घोष किया । भंभसार के पुत्र राजा कूणिक का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे, हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे, अपने शुभ मनोरथ लिये हुए थे, उसका बार-बार अभिस्तवन कर रहे थे, उसकी कान्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण ये स्वामी

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