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औपपातिक - ११
प्रायश्चित्त, मंगल-विधान किया, शुद्ध, प्रवेश्य - उत्तम वस्त्र भली भाँति पहने, थोड़े से पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । यों वह अपने घर से निकलकर वह चम्पानगरी के बीच जहाँ राजा कूणिक का महल था, जहाँ बहिर्वर्ती राजसभा भवन था, जहाँ भंभसार का पुत्र राजा कूणिक था, वहाँ आया उसने हाथ जोड़ते हुए, अंजलि बाँधे "आपकी जय हो, विजय हो" इन शब्दों में वर्धापित किया । तत्पश्चात् बोला- देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन की आप कांक्षा, स्पृहा, प्रार्थना और अभिलाषा करते हैं जिनके नाम तथा गोत्र के श्रवणमात्र से हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, हर्षातिरेक से हृदय खिल उठता है, वे श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से विहार करते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए चम्पा नगरी के उपनगर में पधारे हैं । अब पूर्णभद्र चैत्य में पधारेंगे । देवानुप्रिय ! आपके प्रीत्यर्थ निवेदित कर रहा हूँ । यह आपके लिए प्रियकर हो ।
[१२] भंभसार का पुत्र राजा कूणिक वार्तानिवेदक से यह सुनकर, उसे हृदयंगम कर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ । उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा नेत्र खिल उठे । हर्षातिरेकजनित संस्फूर्तिवश राजा के हाथों के उत्तम कड़े, बाहुरक्षिका, केयूर, मुकुट, कुण्डल तथा वक्षःस्थल पर शोभित हार सहसा कम्पित हो उठे-राजा के गले में लम्बी माला लटक रही थी, आभूषण झूल रहे थे । राजा आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठा । पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा । पादुकाएँ उतारीं । फिर खंड्ग, छत्र, मुकुट, वाहन, चंवर - इन पांच राजचिह्नों को अलग किया । जल से आचमन किया, स्वच्छ, परम शुचिभूत, अति स्वच्छ व शुद्ध हुआ । कमल की फली की तरह हाथों को संपुटित किया । जिस ओर तीर्थंकर भगवान् महावीर बिराजित थे, उस ओर सात, आठ कदम सामने गया । वैसा कर अपने बायें घुटने को आकुंचित-किया-सकिड़ा, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाया, तीन बार अपना मस्तक जमीन से लगाया । फिर वह कुछ ऊपर उठा, कंकण तथा बाहुरक्षिका से सुस्थिर भुजाओं को उठाया, हाथ जोड़े, अंजलि की ओर बोला ।
अर्हत्, भगवान्, आदिकर, तीर्थंकर, धर्मतीर्थ, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवरपुण्डरीक, पुरुषवर - गन्धहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रतीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदायक, चक्षुदायक, मार्गदायक, शरणदायक, जीवनदायक, बोधिदायक, धर्मदायक, धर्मदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथि, धर्मवरचातुरन्त - चक्रवर्ती, दीप, अथवा द्वीप, त्राण, शरण, गति एवं प्रतिष्ठास्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरणरहित उत्तम ज्ञान, दर्शन के धारक, व्यावृत्तछद्मा जिन, ज्ञाता, तीर्ण, तारक, बुद्ध, बोधक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधारहित, अपुनरावर्तन, ऐसी सिद्धि - गति - सिद्धों को नमस्कार हो ।
अचल,
आदिकर, तीर्थंकर, सिद्धावस्था पाने के इच्छुक, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को मेरा नमस्कार हो । यहाँ स्थित मैं, वहाँ स्थित भगवान् को वन्दन करता हूँ । वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखते हैं । इस प्रकार राजा कूणिकने भगवान् को वन्दना की, नमस्कार कीया । पूर्व की ओर मुँह किये अपने उत्तम सिंहासन पर बैठा । एक लाख आठ हजार रजत मुद्राएँ वार्तानिवेदक को प्रीतिदान रूप से दीं । उत्तम वस्त्र आदि द्वारा उसका सत्कार किया, आदरपूर्ण वचनों से सम्मान किया । यों सत्कार तथा सम्मान कर उसने कहा- देवानुप्रिय ! जब श्रमण भगवान् महावीर यहाँ पधारे, यहाँ चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में यथाप्रतिरूप आवास स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए