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विपाकश्रुत-२/१/३७
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मध्य में एक विशाल भवन तैयार करवाया, इत्यादि सारा वर्णन महाबल राजा ही की तरह जानना । विशेषता यह कि - पुष्पचूला प्रमुख पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका विवाह कर दिया गया । इसी तरह पांच सौ का प्रीतिदान उसे दिया गया । तदनन्तर सुबाहुकुमार सुन्दर प्रासादों में स्थित, जिसमें मृदंग बजाये जा रहे है, ऐसे नाट्यादि से उद्गीयमान होता हुआ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा ।
उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर हस्तिशीर्ष नगर पधारे । परिषद् निकली, महाराजा कूणिक के समान अदीनशत्रु राजा भी देशनाश्रवण के लिये निकला । मालिकुमार की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान् के दर्शनार्थ प्रस्थान किया । यावत् भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् और राजा धर्मदेशना सुनकर वापस लौट गये । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के निकट धर्मकथा श्रवण तथा मनन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा'भगवन् ! में निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूं यावत् जिस तरह आपके श्रीचरणों में अनेकों राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुंडित होकर तथा गृहस्थावस्था से निकलकर अनगारधर्म में दीक्षित हुए हैं, वैसे मैं मुंडित होकर घर त्यागकर अनगार अवस्था को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ । मैं पांच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं । भगवान् ने कहा- 'जैसे तुमको सुख हो वैसा करो, किन्तु इसमें देर मत करो । ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों वाले बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया । तदनन्तर उसी रथ पर सुबाहुकुमार सवार हुआ और वापस चला गया ।
उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे- 'अहो भगवन् ! सुबाहुकुमार बालक बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप सुन्दर रूप वाला है । अहो भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्ट रूप यावत् सुरूप लगता है । भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की? कैसे प्राप्त की ? और कैसे उसके सन्मुख उपस्थित हुई ? सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? यावत् इसका नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम अथवा बस्ती में उत्पन्न हुआ था ? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर और कैसे आचार का पालन करके और किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन को श्रवण कर सुबाहुकुमार ने ऐसी यह ऋद्धि लब्ध एवं प्राप्त की है, कैसे यह समृद्धि इसके सन्मुख उपस्थित हुई है ?
गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत् भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक क्रुद्ध, स्तमित एवं समृद्ध नगर था । वहां सुमुख नाम का धनाढ्य गाथापति रहता था । उस काल तथा उस समय उत्तम जाति और कुल से संपन्न यावत् पांच सौ श्रमणों से परिवृत हुए धर्मघोष नामक स्थविर क्रमपूर्वक चलते हुए तथा ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवननामक उद्यान में पधारे । वहां यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे ।
उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी उदार- प्रधान यावत् तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हुए सुदत्त नाम के अनगार एक मास का क्षमण तप करते हुए