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विपाकश्रुत-२/१/३७
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के आसन पर आरूढ होता है और अट्ठमभक्त ग्रहण करता है । पौषधशाला में पौषधव्रत किये हुए वह, अष्टमभक्त सहित पौषध-अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में करने योग्य जैन श्रावक का व्रत विशेष - का यथाविधि पालन करता हुआ विहरण करता है ।
तदनन्तर मध्यरात्रि में धर्मजागरण करते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह आन्तरिक विचार, चिन्तन, कल्पना, इच्छा एवं मनोगत संकल्प उठा कि वे ग्राम आकर नगर, निगम, राजधानी, खेट कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टन, आश्रम, संबाध और सन्निवेश धन्य हैं जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं । वे राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर प्रव्रजित होते हैं । वे राजा, ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर के पास पञ्चाणुव्रतिक और सप्त शिक्षाव्रतिक उस बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार करते हैं । वे राजा ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्मश्रवण करते हैं । सो यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी ग्रामानुग्राम विचरते हुए, यहाँ पधारें तो मैं गृह त्याग कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुंडित होकर प्रव्रजित हो जाऊँ ।
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तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर सुबाहु कुमार के इस प्रकार के संकल्प को जानकर क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरते हुए जहाँ हस्तिशीर्षनगर था, और जहाँ पुष्पकरण्डक नामक उद्यान था, और जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे एवं यथा प्रतिरूपस्थानविशेष को ग्रहण कर संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित तदनन्तर पर्षदा व राजा दर्शनार्थ निकले । सुबाहुकुमार भी पूर्व ही की तरह बड़े समारोह के साथ भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ । भगवान् ने उस परिषद् तथा सुबाहुकुमार को धर्म का प्रतिपादन किया । परिषद् और राजा धर्मदेशना सुन कर वापिस चले गये । सुबाहुकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रवण कर उसका मनन करता हुआ मेघकुमार की तरह अपने माता-पिता से अनुमति लेता है । तत्पश्चात् सुबाहुकुमार का निष्क्रमण - अभिषेक मेघकुमार ही की तरह होता है । यावत् वह अनगार हो जाता है, ईर्यासमिति का पालक यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बन जाता है ।
तदनन्तर सुबाहु अनगार श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करते हैं । अनेक उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के तपों के आचरण से आत्मा को वासित करके अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना के द्वारा अपने आपको आराधित कर साठ भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना व प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि को प्राप्त होकर कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए । तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर व्यवधान रहित देव शरीर को छोड़कर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा । शंकादि दोषों से रहित केवली का लाभ करेगा, बोधि उपलब्ध कर तथारूप स्थविरों के पास मुंडित होकर साधुधर्म में प्रव्रजित हो जाएगा । वहाँ वह अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करेगा और आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होगा । काल धर्म को प्राप्त कर सनत्कुमारनामक तीसरे देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न होगा ।