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विपाकश्रुत-१/१०/३४
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के प्रयोगों से वशवर्ती करके मनुष्य संबंधी उदार मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट रूप में उपभोग का यथेष्ट रूप में उपभोग करती हुई समय व्यतीत कर रही थी ।
तदनन्तर एतत्कर्मा एतत्प्रधान एतद्विद्य एवं एतत् - आचारवाली वह पृथ्वीश्री गणिका अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३५०० वर्ष के परम आयुष्य को भोगकर कालमास में काल करके छट्ठी नरकभूमि में २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थितिवाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुई । वहां से निकल कर इसी वर्धमानपुर नगर में वह धनदेव नामक सार्थवाह की प्रियङ्गु भार्या की कोख से कन्या रूप में उत्पन्न हुई । तदनन्तर उस प्रियङ्ग भार्या ने नव मास पूर्ण होने पर उस कन्या को जन्म दिया और उसका नाम अज्जुश्री रक्खा । उसका शेष वर्णन देवदत्ता ही की तरह जानना ।
तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए राजा वैश्रमणदत्त की भांति ही अञ्जुश्री को देखते हैं और अपने ही लिए उसे तेतलीपुत्र अमात्य की तरह मांगते हैं । यावत् वे अंजुश्री के साथ उन्नत प्रासादों में सानन्द विहरण करते हैं । किसी समय अञ्जुश्री के शरीर में योनिशूल नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया । यह देखकर विजय नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा- 'तुम लोग वर्धमानपुर नगर में जाओ और जाकर वहां के श्रृंगाटक- त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य मार्गों पर यह उद्घोषणा करो कि - देवी अञ्जुश्री को योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है । अतः जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या उसका पुत्र उस रोग को उपशान्त कर देगा, राजा विजयमित्र उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेंगे ।' कौटुम्बिक पुरुष राजाज्ञा से उक्त उद्घोषणा करते हैं । तदनन्तर इस प्रकार की उद्घोषणा को सुनकर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि चिकित्सक विजयमित्र राजा के यहाँ आते हैं । अपनी औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त कर कर विविध प्रयोगों के द्वारा देवी अंजू के योनिशूल को उपशान्त करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु उनके उपयोगों से अञ्जुश्री का निशूल शांत नहीं हो पाया । जब वे अनुभवी वैद्य आदि अंजूश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गये तब खिन्न, श्रान्त एवं हतोत्साह होकर जिधर से आये थे उधर ही चले गये । तत्पश्चात् देवी अंजूश्री उस योनिशूलजन्य वेदना से अभिभूत हुई सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांस रहित होकर कष्ट हेतुक, करुणोत्पादक और दीनतापूर्ण शब्दों में विलाप करती हुई समय-यापन करने लगी । हे गौतम ! इस प्रकार रानी अञ्जुश्री अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्मों के फल का उपभोग करती हुई जीवन व्यतीत कर रही है ।
अहो भगवन् ! अजू देवी काल करके कहाँ जायेगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ? हे गौतम! अजू देवी ६० वर्ष की परम आयु को भोगकर काल करके इस रत्नप्रभानामक पृथ्वी में नारकी रूप से उत्पन्न होगी । उसका शेष संसार प्रथम अध्ययन की तरह जानना । यावत् वनस्पतिगत निम्बादि कटुवृक्षों तथा कटु दुग्ध वाले अर्क आदि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी । वहाँ की भव- स्थिति को पूर्ण कर इसी सर्वतोभद्र नगर में मयूर के रूप में जन्म लेगी । वहां वह मोर व्याधों के द्वारा मारे जाने पर सर्वतोभद्र नगर के ही एक श्रेष्ठीकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगी । वहां बालभाव को त्याग कर, युवावस्था को प्राप्त कर, विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त करते हुए वह तथारूप स्थविरों से बोधिलाभ को प्राप्त करेगा । तदनन्तर दीक्षा ग्रहण