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विपाकश्रुत-१/९/३३
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विपुल अशनादिक और सुरादिक सामग्री का आस्वादन किया और गान्धर्व तथा नाटक नर्तकों से उपगीयमान-प्रशस्यमान होती हुई सानन्द विचरने लगीं ।
तत्पश्चात् सिंहसेन राजा अर्द्धरात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ, उनसे घिरा हुआ, जहाँ कूटाकारशाला थी वहाँ पर आया । आकर उसने कूटाकारशाला के सभी दरवाजे बन्द करवा दिये । कूटाकारशाला को चारों तरफ से आग लगवा दी । तदनन्तर राजा सिंहसेन के द्वारा आदीप्त की गई, जलाई गई, त्राण व शरण से रहित हुई एक कम पांच सौ रानियों की एक कम पांच सौ माताएं रुदन क्रन्दन व विलाप करती हुई कालधर्म को प्राप्त हो गई । इस प्रकार के कर्म करनेवाला, ऐसी विद्या-बुद्धिवाला, ऐसा आचरण करनेवाला सिंहसेन राजा अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३४-सौ वर्ष की परम आयु भोगकर काल करके उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाली छट्ठी नरकभूमि में नारक रूप से उत्पन्न हुआ । वही सिंहसेन राजा का जीव स्थिति के समाप्त होने पर वहां से निकलकर इसी रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुआ ।
___ तब उस कृष्णश्री भार्या ने नव मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया । वह अत्यन्त कोमल हाथ-पैरों वाली तथा अत्यन्त रूपवती थी । तत्पश्चात् उस कन्या के मातापिता ने बारहवें दिन बहुत-सा अशनादिक तैयार कराया यावत् मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, संबंधीजन तथा परिजनों को निमन्त्रित करके एवं भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा-हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रक्खा जाता है । तदनन्तर वह देवदत्ता पांच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी । वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप व लावण्य से अत्यन्त उत्तम व उत्कृष्ट शरीरवाली हो गई । एक वार वह देवदत्ता स्नान करके यावत् समस्त आभूषणों से विभूषित होकर बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर सोने की गेंद के साथ क्रीडा करती हुई विहरण कर रही थी ।
इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् सर्वालङ्कारविभूषित राजा वैश्रमणदत्त अश्वपर आरोहण करता है और बहुत से पुरुषों के साथ परिवृत अश्वक्रीड़ा के लिये जाता हुआ दत्त गाथापति के घर के कुछ पास से निकलता है । तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त राजा देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद से खेलती हुई देखता है और देखकर देवदत्ता दारिका के रूप, यौवन व लावण्य से विस्मय को प्राप्त होता है । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहता है-'हे देवानुप्रियो ! यह बालिका किसकी है ? और इसका क्या नाम है ?' तब वे कौटुम्बिक पुरुष हाथ जोड़कर यावत् कहने लगे-'स्वामिन् ! यह कन्या दत्त गाथापति की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा है जो रूप, यौवन तथा लावण्य-कान्ति से उत्तम तथा उत्कृष्ट शरीरवाली है ।
तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका से वापिस आकर अपने आभ्यन्तर स्थानीय को बुलाकर उनको इस प्रकार कहता है-देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जाकर सार्थवाह दत्त की पुत्री और कृष्णश्री भार्या की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्पनन्दी के लिये भार्या रूप में मांग करो । यदि वह राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी प्राप्त करने के योग्य है । तदनन्तर वे अभ्यंतर-स्थानीय पुरुष राजा वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर, हर्ष को प्राप्त हो यावत् स्नानादि क्रिया करके तथा राजसभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहनकर जहाँ दत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ आये । दत्त सार्थवाह भी