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प्रश्नव्याकरण- २/९/४३
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धारण करना, मैल को धारण करना, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुञ्चन करना, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेलकता, धारण करना, भूख-प्यास सहना, लाघव उपधि अल्प रखना, सर्दीगर्मी सहना, काष्ठ की शय्या भूमिनिषद्या, परगृहप्रवेश में मान, अपमान, निन्दा एवं दंशमशक का क्लेश सहन करना, नियम करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय आदि से अन्तःकरण को भावित करना चाहिए; जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर हो । अब्रह्मनिवृत्ति व्रत की रक्षा के लिए भगवान् महावीर ने यह प्रवचन कहा है । यह प्रवचन परलोक में फलप्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है ।
चतुर्थ अब्रह्मचर्यविरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पाँच भावनाएँ हैं- प्रथम भावना इस प्रकार है- शय्या, आसन, गृहद्वार, आँगन, आकाश, गवाक्ष, शाला, अभिलोकन, पश्चाद्गृह, प्रसाधनक, इत्यादि सब स्थान स्त्रीसंसक्त होने से वर्जनीय हैं । इनके अतिरिक्त वेश्याओं के स्थान हैं और जहाँ स्त्रियाँ बैठती- उठती हैं और बारबार मोह, द्वेष, कामराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएँ कहती हैं उनका भी ब्रह्मचारी को वर्जन करना चाहिए। ऐसे स्त्री के संसर्ग के कारण संक्लिष्ट जो भी स्थान हों, उनसे भी अलग रहना चाहिए, जैसे - जहाँ रहने से मन में विभ्रम हो, ब्रह्मचर्य भग्न होता हो या उसका आंशिकरूप से खण्डन होता हो, जहाँ रहने से आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान होता हो, उन-उन अनायतनों का पापभीरुपरित्याग करे । साधु तो ऐसे स्थान पर ठहरता है जो अन्त प्रान्त हों । इस प्रकार असंसक्तवासवसति समिति के स्थान का त्याग रूप समिति के योग से युक्त अन्तःकरणवाला, ब्रह्मचर्य की मर्यादा में मनवाला तथा इन्द्रियों के विषय ग्रहण से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त होता है ।
दूसरी भावना है स्त्रीकथावर्जन । नारीजनों के मध्य में अनेक प्रकार की कथा नहीं करनी चाहिए, जो बातें स्त्रियों की कामुक चेष्टाओं से और विलास आदि के वर्णन से युक्त हों, जो हास्यरस और श्रृंगाररस की प्रधानतावाली साधारण लोगों की कथा की तरह हों, जो मोह उत्पन्न करनेवाली हों । इसी प्रकार विवाह सम्बन्धी बातें, स्त्रियों के सौभाग्य- दुर्भाग्य की भी चर्चा, महिलाओं के चौसठ गुणों, स्त्रियों के रंग-रूप, देश, जाति, कुल-सौन्दर्य, भेदप्रभेद - पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी, शंखिनी आदि प्रकार, पोशाक तथा परिजनों सम्बन्धी कथाएँ तथा इसी प्रकार की जो भी अन्य कथाएँ श्रृंगाररस से करुणता उत्पन्न करनेवाली हों और जो तप, संयम तथा ब्रह्मचर्य का घात-उपघात करनेवाली हों, ऐसी कथाएँ ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले साधुजनों को नहीं कहनी चाहिए । ऐसी कथाएँ - बातें उन्हें सुननी भी नहीं चाहिए और उनका मन में चिन्तन भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार स्त्रीकथाविरति समिति योग से भावित अन्तःकरणवाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला तथा इन्द्रिय विकार से विरत रहने जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त रहता है ।
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ब्रह्मचर्यव्रत की तीसरी भावना स्त्री के रूप को देखने के निषेध स्वरूप है । नारियों के हास्य को, विकारमय भाषण को हाथ आदि की चेष्टाओं को, विप्रेक्षण को, गति को, विलास और क्रीडा को, इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर अभिमानपूर्वक किया गया तिरस्कार, नाट्य, नृत्य, गीत, वादित आदि वाद्यों के वादन, शरीर की आकृति, गौर श्याम आदि वर्ण,