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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
हाथों, पैरों एवं नेत्रों का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर, वस्त्र, अलंकार और भूषण - ललाट की बिन्दी आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को, एवं स्त्रीसम्बन्धी अन्य अंगोपांगों या चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य, तप तथा संयम का घात - उपघात होता है, उन्हें ब्रह्मचर्य का अनुपालन करनेवाला मुनि न नेत्रों से देखे, न मन से सोचे और न वचन से उनके सम्बन्ध में कुछ बोले और न पापमय कार्यों की अभिलाषा करे । इस प्रकार स्त्रीरूपविरति के योग से भावित अन्तःकरणवाला मुनि ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला, इन्द्रियविकार से विरत, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त - सुरक्षित होता है ।
पूर्व - रमण, पूर्वकाल में की गई क्रीड़ाएँ, पूर्वकाल के सग्रन्थ, ग्रन्थ तथा संश्रुत, इन सब का स्मरण नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त द्विरागमन, विवाह, चूडाकर्म, पर्वतिथियों में, यज्ञों आदि के अवसरों पर, श्रृंगार के आगार जैसी सजी हुई, हाव, भाव, प्रललित, विक्षेप, पत्रलेखा, आँखों में अंजन आदि श्रृंगार, विलास - इन सब से सुशोभित, अनुकूल प्रेमवाली स्त्रियों के साथ अनुभव किए हुए शयन आदि विविध प्रकार के कामशास्त्रोक्त प्रयोग, ऋतु के उत्तम वासद्रव्य, धूप, सुखद स्पर्शवाले वस्त्र, आभूषण, रमणीय आतोद्य, गायन, प्रचुर नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल - कुश्तीबाज, मौष्टिक, विदूषक, कथा-कहानी सुनानेवाले, प्लवक रासलीला करनेवाले, शुभाशुभ बतलानेवाले, लंख, मंख, तूण नामक वाद्य बजानेवाले, वीणा बजाने वाले, तालाच - इस सब की क्रीडाएँ, गायकों के नाना प्रकार के मधुर ध्वनिवाले गीत एवं मनोहर स्वर और इस प्रकार के अन्य विषय, जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात - उपघात करनेवाले हैं, उन्हें ब्रह्मचर्यपालक श्रमण को देखना नहीं चाहिए, इन से सम्बद्ध वार्त्तालाप नहीं करना चाहिए और पूर्वकाल में जो देखे सुने हों, उनका स्मरण भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार पूर्ववत्-पूर्वक्रीडितविरति -समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला, मैथुनविरत, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त - सुरक्षित होता है ।
पाँचवी भावना - सरस आहार एवं स्निग्ध भोजन का त्यागी संयम शील सुसाधु दूध, दही, घी मक्खन, तेल, गुड़, खाँड, मिसरी, मधु, मद्य, मांस, खाद्यक और विगय से रहित आहार करे । वह दर्पकारक आहार न करे । दिन में बहुत बार न खाए और न प्रतिदिन लगातार खाए । न दाल और व्यंजन की अधिकतावाला और न प्रभूत भोजन करे । साधु उतना ही हित- मित आहार करे जितना उसकी संयम - यात्रा का निर्वाह करने के लिए आवश्यक हो, जिससे मन में विभ्रम उत्पन्न न हो और धर्म से च्युत न हो । इस प्रकार प्रणीत आहार की विरत रूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की आराधना में अनुरक्त चित्तवाला और मैथुन से विरत साधु जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से सुरक्षित होता है ।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य सम्यक् प्रकार से संवृत और सुरक्षित होता है । मन, वचन, और काय, इन तीनों योगों से परिरक्षित इन पाँच भावनारूप कारणों से सदैव, आजीवन यह योग धैर्यवान् और मतिमान् मुनि को पालन करना चाहिए । यह संवरद्वार आस्रव से, मलीनता से, और भावछिद्रों से रहित है । इससे कर्मों का आस्रव नहीं होता । यह संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । इस प्रकार यह चौथा संवरद्वार स्पृष्ट, पालित, शोधित, पार, कीर्तित, आराधित और तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के अनुसार अनुपालित होता है, ऐसा ज्ञातमुनि भगवान् ने कहा है । यह प्रसिद्ध है, प्रमाणों से सिद्ध है । यह भवस्थित