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विपाकश्रुत-१/७/३१
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तदनन्तर वह धन्वतरि वैद्य का जीव नरक से निकलकर इसी पाटलिखण्ड नगर में गंगदत्ता भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । लगभग तीन मास पूर्ण हो जाने पर गंगदत्ता भार्या को यह दोहद उत्पन्न हुआ । 'धन्य हैं वे माताएँ यावत् उन्होंने अपना जन्म और जीवन सफल किया है जो विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम और सुरा आदि मदिराओं को तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र, ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत होकर पाटलिखण्ड नगर के मध्य में से निकलकर पुष्करिणी पर जाती हैं । जल स्नान व अशुभ-स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं । इस तरह विचार करके प्रातःकाल जाज्वल्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर जहाँ सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आकर सागरदत्त सार्थवाह से कहती है-'स्वामिन् ! वे माताएँ धन्य हैं जो यावत् उक्त प्रकार से अपना दोहद पूर्ण करती हैं । मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ ।' सागरदत्त सार्थवाह भी दोहदपूर्ति के लिए गंददत्ता भार्या को आज्ञा दे देता है ।
सागरदत्त सार्थवाह से आज्ञा प्राप्त कर गंगदत्ता पर्याप्त मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार तैयार करवाती है और उपस्कृत आहार एवं छह प्रकार के मदिरादि पदार्थ तथा बहुत सी पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर मित्र, ज्ञातिजन आदि की तथा अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान तथा अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिये मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के आयतन में आ जाती है । वहाँ पहिले की ही तरह पूजा करती व धूप जलाती है । तदनन्तर पुष्करिणी-वावड़ी पर आ जाती है, वहाँ पर साथ में आनेवाली मित्र, ज्ञाति आदि महिलाएं गंगदत्ता को सर्व अलङ्कारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात् उन मित्रादि महिलाओं तथा अन्य महिलाओं के साथ उस विपुल अशनादिक तथा षड्विध सुरा आदि का आस्वादन करती हुई गंगदत्ता अपने दोहद-मनोरथ को परिपूर्ण करती है । इस तरह दोहद को पूर्ण कर वह वापिस अपने घर आ जाती है । तदनन्तर सम्पूर्णदोहदा, सन्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा वह गंगदत्ता उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है ।।
तत्पश्चात् नव मास परिपूर्ण होने पर उस गंगदत्ता ने एक बालक को जन्म दिया । माता-पिता ने स्थितिपतिता मनाया । फिर उसका नामकरण किया, 'यह बालक क्योंकि उम्बरदत्त यक्ष की मान्यता मानने से जन्मा है, अतः इसका नाम भी 'उम्बरदत्त' ही हो । तदनन्तर उम्बरदत्त बालक पाँच धायमाताओं द्वारा गृहीत होकर वृद्धि को प्राप्त करने लगा । तदनन्तर सागरदत्त सार्थवाह भी विजयमित्र की ही तरह कालधर्म को प्राप्त हुआ । गंगदत्ता भी कालधर्म को प्राप्त हुई । इधर उम्बरदत्त को भी उज्झितकुमार की तरह राजपुरुषों ने घर से निकाल दिया । उसका घर किसी अन्य को सौंप दिया ।
तत्पश्चात् किसी समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगातङ्क उत्पन्न हो गये, जैसे कि, श्वास, कास यावत् कोढ़ आदि । इन सोलह प्रकार के रोगातकों से अभिभूत हुआ उम्बरदत्त खुजली यावत् हाथ आदि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन बिता रहा है । हे गौतम ! इस प्रकार उम्बरदत्त बालक अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों का यह भयङ्कर फल भोगता हुआ इस तरह समय व्यतीत कर रहा है । भगवन् ! यह उम्बरदत्त बालक मृत्यु के
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