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विपाकश्रुत- १/७/३१
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के पार के निमित्त यावत् पाटलिखण्ड नगर की ओर प्रस्थान किया और नगर के पूर्व दिशा
द्वार से प्रवेश किया तो मैंने एक पुरुष को देखा जो कण्डूरोग से आक्रान्त यावत् भिक्षावृत्ति से आजीविका कर रहा था । फिर दूसरी बार, तीसरी बार, यावत् और जब चौथी बार में बेले के पारण के निमित्त पाटलिखण्ड में उत्तर दिग्द्वार से प्रविष्ट हुआ तो वहाँ पर भी कंडूरोग से ग्रस्त भिक्षावृत्ति करते हुए उस पुरुष को देखा । उसे देखकर मेरे मानस में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भुगत रहा है; इत्यादि । प्रभो ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो इस प्रकार भीषण रोगों से आक्रान्त हुआ कष्टपूर्ण जीवन व्यतित कर रहा है ? भगवान् महावीर ने कहा
हे गौतम! उस काल और उस समय में इस जम्बूद्वीप के अन्तर्गत् भारतवर्ष में विजयपुर नाम का क्रुद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था । उसमें कनकरथ राजा था । उस कनकरथ का धन्वन्तरि नाम का वैद्य था जो आयुर्वेद के आठों अङ्गों का ज्ञाता था । आयुर्वेद के आठों अङ्गों का नाम इस प्रकार है - कौमारमृत्यु, शालाक्य, शाल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल, भूतविद्या, रसायन और वाजीकरण । वह धन्वन्तरि वैद्य शिवहस्त, शुभहस्त, व लघुहस्त था ।
वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगरके महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली रानियों को तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहो को तथा इसी तरह अन्य बहुत से दुर्बल ग्लान, रोगी, व्याधित या बाधित, रुग्ण व्यक्तियों को एवं सनाथों, अनाथों, श्रमणों-ब्राह्मणों, भिक्षुकों, कापालिकों, कार्पटिको, अथवा भिखमंगों और आतुरों की चिकित्सा किया करता था । उनमें से कितने को मत्स्यमांस खाने का, कछुओं के मांस का, ग्राह के मांस का, मगरों के मांस का, सुंसुमारों के मांस का, बकरा के मांस खाने का उपदेश दिया करता था । इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों, शशकों, गौओं और महिषों का मांस खाने का भी उपदेश करता था । कितनों को तित्तरों के मांस का, बटेरों, लावकों, कबूतरों, कुक्कुटों व मयूरों के मांस का उपदेश देता । इसी भांति अन्य बहुत से जलचरों, स्थलचरों तथा खेचरों आदि के मांस का उपदेश करता था । यही नहीं, वह धन्वन्तरि वैद्य स्वयं भी उन अनेकविध मत्स्यमांसों, मयूरमांसो तथा अन्य बहुत से जलचर स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों से तथा मत्स्यरसों व मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए, भूने हुए मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन व विस्वादन, परिभाजन एवं बार-बार उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था ।
तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य इन्हीं पापकर्मों वाला इसी प्रकार की विद्यावाला और ऐसा ही आचरण बनाये हुए, अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३२ सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर काल मास में काल करके छट्ठी नरकपृथ्वी में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ ।
उस समय सागरदत्त की गङ्गदत्ता भार्या जातनिन्दुका थी । अतएव उसके बालक उत्पन्न होने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे । एक बार मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता से जागती उस गंगदत्ता सार्थवाही के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ, मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाहके साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार - प्रधान कामभोगों का उपभोग करती आ रही हूँ परन्तु मैंने आज तक जीवित रहनेवाले एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म देने का