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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
अध्ययन - ७ ' उंबरदत्त'
[३१] उत्क्षेप पूर्ववत् । हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में पाटलिखंड नगर था । वहाँ वनखण्ड उद्यान था । उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था । उस नगर में सिद्धार्थ राजा था । पाटलिखण्ड नगर में सागरदत्त नामक धनाढ्य सार्थवाह था । उसकी गङ्गदत्ता भार्या थी । उस सागरदत्त का पुत्र व गङ्गदत्ता भार्या का आत्मज उम्बरदत्त नाम का अन्यून व परिपूर्ण पञ्चेन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला एक पुत्र था । उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर वहां पधारे, यावत् धर्मोपदेश सुनकर राजा तथा परिषद् वापिस चले गये ।
उस काल तथा उस समय गौतम स्वामी के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये पाटलिखण्ड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं । वहाँ एक पुरुष को देखते हैं, वह पुरुष कण्डू, कोढ, जलोदर, भगन्दर तथा अर्श के रोग से ग्रस्त था । उसे खांसी, श्वास व सूजन का रोग भी हो रहा था । उसका मुख, हाथ और पैर भी सूजे हुए थे । हाथ और पैर की अङ्गलियां सड़ी हुई थीं, नाक और कान गले हुए थे । व्रणों से निकलते सफेद गन्दे पानी तथा पीव से वह 'थिव थिव' शब्द कर रहा था । कृमियों से अत्यन्त ही पीडित तथा गिरते हुए पीव और रुधिरखाले व्रणमुखों से युक्त था । उसके कान और नाक फोड़े के बहाव के तारों से गल चुके थे । बारंबार वह पीव, रुधिर, तथा कृमियों के कवलों का वमन कर रहा था । वह कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था । उसके पीछे-पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड चले जा रहे थे । उसके सिर के बाल अस्तव्यस्त थे । उसने थिगलीवाले वस्त्रखंड धारण कर रक्खे थे । फूटे हुए घड़े का टुकड़ा उसका भिक्षापात्र था । सिकोरे का खंड उसका जल-पात्र था, जिसे वह हाथ में लिए हुए घर-घर में भिक्षावृत्ति के द्वारा आजीविका कर रहा था।
इधर भगवान् गौतम स्वामी ऊँच नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए पाटलिखण्ड नगर से निकलकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आकर भक्तपान की आलोचना की और आहार- पानी भगवान् को दिखलाकर उनकी आज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भांति आहार करते हैं और संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे । उसके बाद भगवान् गौतमस्वामी ने दूसरी बार बेले के पार के निमित्त प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिखण्ड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उन्होंने कंडू आदि रोगों से युक्त उसी पुरुष को देखा और वे भिक्षा लेकर वापिस आये । यावत् तप व संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । तदनन्तर भगवान् गौतम तीसरी बार बेले के पारणे के निमित्त उसी नगर में पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं, तो वहाँ पर भी वे उसी पूर्ववर्णित पुरुष को देखते हैं ।
इसी प्रकार गौतम चौथी बार बेले के पारणे के लिये पाटलिखण्ड में उत्तरदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं । तब भी उन्होंने उसी पुरुष को देखा । उसे देखकर मन में यह संकल्प हुआ कि - अहो ! यह पुरुष पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कटु - विपाक को भोगता हुआ दुःख पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है, यावत् वापिस आकर उन्होंने भगवान् से कहा- 'भगवन् ! मैंने बेले