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विपाकश्रुत-१/८/३२
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श्रीद रसोइया के अन्य अनेक वेतन लेकर काम करनेवाले पुरुष अनेक जीते हुए तित्तरों यावत् मयूरों को पक्ष रहित करके उसे लाकर दिया करते थे ।
तदनन्तर वह श्रीद नामक रसोइया अनेक जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों को लेकर सूक्ष्म, वृत्त, दीर्घ, तथा ह्रस्व खण्ड किया करता था । उन खण्डों में से कई एक को बर्फ से पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिससे वे स्वतः पक जाते थे, कई एक को धूप की गर्मी से व कई एक को हवा के द्वारा पकाता था । कई एक को कृष्ण वर्णवाले तो कई एक को हिंगुल वर्णवाले किया करता था । वह उन खण्डों को तक्र, आमलक, द्राक्षारस, कपित्थ तथा अनार के रस से भी संस्कारित करता था एवं मत्स्यरसों से भी भावित किया करता था । तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कई एक को तेल से तलता, कई एक को आग पर भूनता तथा कई एक को सूल में पिरोकर पकाता था । इसी प्रकार मत्स्यमांसों, मृगमांसों, तित्तिरमांसों, यावत् मयूरमांसों के रसों को तथा अन्य बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके राजा मित्र के भोजनमंडप में लेजाकर भोजन के समय उन्हें प्रस्तुत करता था । श्रीद रसोइया स्वयं भी अनेक जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों व हरे शाकों के साथ, जो कि शूलपक्क होते, तले हुए होते, भूने हुए होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि का आस्वादनादि करता हुआ काल यापन कर रहा था ।
तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करनेवाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखनेवाला, इन्हीं का विज्ञान रखनेवाला, तथा इन्हीं पापों को सर्वोत्तम आचरण माननेवाला वह श्रीद रसोइया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर ३३०० वर्ष की परम आयु को भोग कर कालमास में काल करके छठे नरक में उत्पन्न हुआ । उस समय वह समुद्रदत्ता भार्या मृतवत्सा थी । उसके बालक जन्म लेने के साथ ही मर जाया करते थे । उसने गंगदत्ता की ही तरह विचार किया, पति की आज्ञा लेकर, मान्यता मनाई और गर्भवती हुई । दोहद की पूर्ति पर समुद्रदत्त बालक को जन्म दिया। 'शौरिक यक्ष की मनौती के कारण हमें यह बालक उपलब्ध हुआ है' ऐसा कहकर उसका नाम 'शौरिकदत्त' रक्खा । तदनन्तर पांच धायमाताओं से परिगृहीत, बाल्यावस्था को त्यागकर विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न वह शौरिकरदत्त युवावस्था को प्राप्त हुआ । तदनन्तर समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हो गया । रुदन आक्रन्दन व विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्र-ज्ञाति-स्वजन परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया, दाहकर्म व अन्य लौकिक क्रियाएं की । तत्पश्चात् किसी समय वह स्वयं ही मच्छीमारों का मुखिया बन कर रहने लगा । अब वह मच्छीमार हो गया जो महा अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था ।
तदनन्तर शौरिकदत्त मच्छीमार ने पैसे और भोजनादि का वेतन लेकर काम करनेवाले अनेक वेतनभोगी पुरुष रक्खे, जो छोटी नौकाओं के द्वारा यमुना महानदी में प्रवेश करते, ह्रदगलन ह्रद-मलन, हृदमर्दन, हृद-मन्थन, हृदवहन, ह्रद-प्रवहन से, तथा प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपुच्छ, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध साधनों के द्वारा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्य-विशेषों को पकड़ते, उनसे नौकाएं भरते हैं । नदी के किनारे पर लाते हैं, बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं । तत्पश्चात् उनको वहाँ धूप में सूखने के लिए रख देते हैं । इसी प्रकार उसके अन्य वेतनभोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते और भूनते तथा उन्हें राजमार्गों में विक्रयार्थ रखकर आजीविका