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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
के सदृश स्वच्छ हृदय वाला, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गेंडे के सींग के समान अकेला, स्थाणु की भाँति ऊर्ध्वकाय, शून्यगृह के समान अप्रतिकर्म, वायुरहित घर में स्थित प्रदीप की तरह निश्चल, छुरे की तरह एक धारवाला, सर्प के समान एकदृष्टिवाला, आकाश के समान स्वावलम्बी । पक्षी के सदृश विप्रमुक्त, सर्प के समान दूसरों के लिए निर्मित स्थान में रहनेवाला। वायु के समान अप्रतिबद्ध । देहविहीन जीव के समान अप्रतिहत गतिवाला होता है ।
(मुनि) ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक विचरता है, क्योंकि वह जितेन्द्रिय होता है, परीषहों को जीतने वाला, निर्भय, विद्वान, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में वैराग्ययुक्त होता है, वस्तुओं के संचय से विरत, मुक्त, लघु, जीवन मरण की आशा से मुक्त, चारित्र-परिणाम के विच्छेद से रहित, निरतिचार, अध्यात्मध्यान में निरत, उपशान्तभाव तथा एकाकी होकर धर्म आचरण करे । परिग्रहविरमणव्रत के परिरक्षण हेतु भगवान् ने यह प्रवचन कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भवों में उत्तम फल देनेवाला है
और भविष्य में कल्याण करनेवाला है । यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वोत्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वथा शान्त करनेवाला है ।
अपरिग्रहमहाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं । उनमें से प्रथम भावना इस प्रकार हैश्रोत्रेन्द्रिय से, मन के अनुकूल होने के कारण भद्र शब्दों को सुन कर (साधु को राग नहीं करना चाहिए) । वे शब्द कौन से, किस प्रकार के हैं ? उत्तम मुरज, मृदंग, पणव, दुर्दर, कच्छभी, वीणा, विपंची और वल्लकी, बध्धीसक, सुघोषा, घंटा, नन्दी, सूसरपरिवादिनी, वंश, तूणक एवं पर्वक नामक वाद्य, तंत्री, तल, ताल, इन सब बाजों के नाद को (सुन कर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मुष्टिमल्ल, विदूषक, कथक, प्लवक, रास गाने वाले आदि द्वारा किये जानेवाले नाना प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त सुस्वर गीतों को (सुनकर) तथा कंदोरा, मेखला, कलापक, प्रतरक, प्रहेरक, पादजालक एवं घण्टिका, खिंखिनी, रत्नोरुजालक, क्षुद्रिका, नेउर, चरणमालिका, कनकनिगड और जालक इन सब की ध्वनि सुनकर तथा लीलापूर्वक चलती हुई स्त्रियां की चाल से उत्पन्न एवं तरुणी रमणियों के हास्य की, बोलों की तथा स्वर-घोलनायुक्त मधुर तथा सुन्दर आवाज को और स्नेहीजनों द्वारा भाषित प्रशंसा-वचनों को एवं इसी प्रकार के मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सुन कर) उनमें साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, गृद्धि नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व-पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट नहीं होना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज्ञ एवं पापक शब्द को सुनकर रोष नहीं करना । वे शब्द-कौन से हैं ? आक्रोश, परुष, वचन, खिंसना-निन्दा, अपमान, तर्जना, निर्भर्त्सना, दीप्तवचन, त्रासजनक वचन, अस्पष्ट उच्च ध्वनि, रुदनध्वनि, रटित, क्रन्दन, निघुष्ट, रसित, विलाप के शब्द-इन सब शब्दों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ एवं पापक शब्दों में साधु को रोष नहीं करना चाहिए, उनकी हीलना, या निन्दा नहीं करनी चाहिए, जनसमूह के समक्ष उन्हें बुरा नहीं करना चाहिए, अमनोज्ञ शब्द उत्पन्न करनेवाली वस्तु का छेदन, भेदन या नष्ट नहीं करना चाहिए । अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तःकरणवाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज्ञरूप शुभ-अशुभ शब्दों में राग-द्वेष के संवरवाला, मन-वचन और काय का गोपन करनेवाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे ।