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प्रश्नव्याकरण-२/१०/४५
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हो, जीवन का अन्त करनेवाला और समग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करनेवाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए अथवा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य, आहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता ।
पात्रधारी सुविहित साधु के पास जो पात्र, भाँड, उपधि और उपकरण होते हैं, जैसेपात्र, पात्रबन्धन, पात्रकेसरिका, पात्रस्थापनिका, पटल, रजत्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छाद, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक, ये सब भी संयम की वृद्धि के लिए होते हैं तथा वात, ताप, धूप, डांस-मच्छर और शीत से रक्षण के लिए हैं । इन सब उपकरणों को राग और द्वेष से रहित होकर साधु को धारण करने चाहिए । सदा इनका प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना चाहिए । दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रह कर भाजन, भाण्ड, उपधि और उपकरणों को रखना और ग्रहण करना चाहिए ।
इस प्रकार के आचार का परिपालन करने के कारण वह साधु संयमवान्, विमुक्त, निःसंग, निष्परिग्रहरुचि, निर्मम, निःस्नेहबन्धन, सर्वपापविरत, वासी-चन्दनकल्प समान भावना वाला, तृण, मणि, मुक्ता और मिट्टी के ढेले को समान माननेवाला रूप, सन्मान और अपमान में समता का धारक, पाप रूपी रज को उपशान्त करने वाला, राग-द्वेष को शान्त करने वाला, ईर्या आदि पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और समस्त प्राणों-द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणियों और भूतों पर समभाव धारण करने वाला होता है । वही वास्तव में साधु है ।
वह साधु श्रुत का धारक, ऋजु- और संयमी है । वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, समस्त जगद्वर्ती जीवों का वत्सल होता है । वह सत्यभाषी, संसार-के अन्त में स्थित, संसार का उच्छेद करनेवाला, सदा के लिए मरण आदि का पारगामी और सब संशयों का पारगामी होता है । आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा आठ कर्मों की ग्रन्थि को खोलनेवाला आठ मदों का मथन करनेवाला एवं स्वकीय सिद्धान्त में निष्णात होता है सुख-दुःख में विशेषता रहित होता है । आभ्यन्तर और बाह्य तप रूप उपधान में सम्यक् प्रकार से उद्यत रहता है, क्षमावान्, इन्द्रियविजेता, स्वकीय और परकीय हित में निरत, ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षपणसमिति और मल-मूत्र-श्लेष्म-संघाननासिकामलजल्ल आदि के प्रतिष्ठापन की समिति से युक्त, मनोगुप्ति से, वचनगुप्ति से और कायगुप्ति से युक्त, विषयों की ओर उन्मुख इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्य की गुप्ति से युक्त, समस्त प्रकार के संग का त्यागी, सरल, तपस्वी, क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय, सद्गुणों से शोभित या शोधित, निदान से रहित, चित्तवृत्ति को संयम की परिधि से बाहर न जाने देनेवाला, ममत्व से विहीन, अकिंचन, स्नेहबन्धन को काटने वाला और कर्म के उपलेप से रहित होता है । मुनि आगे कही जाने वाली उपमाओं से मण्डित होता है
कांसे के उत्तम पात्र समान रागादि के बन्ध से मुक्त होता है । शंख के समान निरंजन, कच्छप की तरह इन्द्रियों का गोपन करनेवाला । उत्तम शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त । कमल के पत्ते के सदृश निर्लेप । चन्द्रमा के समान सौम्य, सूर्य के समान देदीप्यमान, मेरु के समान अचल, सागर के समान क्षोभरहित, पृथ्वी के समान समस्त स्पर्शों को सहन करनेवाला । तपश्चर्या के तेज से दीप्त प्रज्वलित अग्नि के सदृश देदीप्यमान, गोशीर्ष चन्दन की तरह शीतल. सरोवर के समान प्रशान्तभाव वाला. अच्छी तरह घिस कर चमकाए हुए निर्मल दर्पणतल के समान स्वच्छ, गजराज की तरह शूरवीर, वृषभ की तरह अंगीकृत व्रतभार का निर्वाह करनेवाला, मृगाधिपति सिंह के समान परीषहादि से अजेय, शरत्कालीन जल