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विपाकश्रुत- १/३/२०
मध्यवर्ती दुकानों पर अण्डों के व्यापार से आजीविका करते हुए समय व्यतीत करते थे । वह निर्णय अण्डवणिक् स्वयं भी अनेक कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों के, जो कि पकाये हुए, त हुए और भुने हुए थे, साथ ही सुरा, मधु, मेरक, जाति तथा सीधु इन पंचविध मदिराओं का आस्वादन करता हुआ जीवन-यापन कर रहा था । तदनन्तर वह निर्णय अण्डवणिक् इस प्रकार के पापकर्मों का करनेवाला अत्यधिक पापकर्मों को उपार्जित करके एक हजार वर्ष की परम आयुष्य को भोगकर, मृत्यु के समय में मृत्यु को प्राप्त करके तीसरी नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थितिवाले नारकों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ ।
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[२१] वह निर्णयनामक अण्डवणिक् नरक से निकलकर विजयनामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । किसी अन्य समय लगभग तीन मास परिपूर्ण होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद उत्पन्न हुआ - वे माताएँ धन्य हैं, जो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं तथा अन्य महिलाओं से परिवृत होकर स्नान यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्नादि को निष्फल बनाने के लिये प्रायश्चित्त रूप में माङ्गलिक कृत्यों को करके सर्वप्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो, बहुत प्रकार के अशन, पान, खादिम स्वादिम पदार्थों तथा सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्नादि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचरती हैं, तथा भोजन के पश्चात् जो उचित स्थान पर उपस्थित हुई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेश पहना हुआ है और जो दृढ बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कलक आदि से युक्त कवच - लोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं, तथा वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोशम्यान से बाहर निकली हुई तलवारों से, कन्धे पर रखे हुए तरकशों से ऊँचे किये हुए जालों अथवा शस्त्रविशेषों से, प्रत्यंचा युक्त धनुषों से, सम्यक्तया फेंक जानेवाले बाणों से, लटकती व अवसारित चालित जंघा - घण्टियों के द्वारा तथा क्षिप्रतूर्य बजाने से महान्, उत्कृष्ट - आनन्दमय महाध्वनि से समुद्र की आवाज के समान आकाशमण्डल को शब्दायमान करती हुई शालावी नामक चोरपल्ली के चारों ओर अवलोकन तथा चारों तरफ भ्रमण करती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं । क्या अच्छा हो यदि मैं भी इसी भांति अपने दोहद को पूर्ण करूँ ? ऐसा विचार करने के पश्चात् वह दोहद के पूर्ण न होने से उदास हुई, दुबली पतली और जमीन पर नजर लगाए आर्तध्यान करने लगी ।
तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देखकर इस प्रकार पूछा- देवानुप्रिये ! तुम उदास हुई क्यों आर्तध्यान कर रही हो ? स्कन्दश्री ने विजय चोरसेनापति से कहा- देवानुप्रिय ! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चुके हैं । मुझे पूर्वोक्त दोहद हुआ, उसकी पूर्ति न होने से आर्तध्यान कर रही हूँ । तब विजय चोरसेनापति ने अपनी स्कन्दश्री भार्या का यह कथन सुन और समझ कर कहा - हे सुभगे ! तुम इस दोहद की अपनी इच्छा के अनुकूल पूर्ति कर सकती हो, इसकी चित्ता न करो । तदनन्तर वह स्कन्दश्री के वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । हर्षातिरेक से बहुत सहचारियों व चोरमहिलाओं को साथ में लेकर स्नानादि से निवृत्त हो, अलंकृत होकर विपुल अशन, पान, व सुरा मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करने लगी । इस तरह सबके साथ भोजन करने के पश्चात् उचित स्थान पर एकत्रित होकर पुरुषवेश को धारण कर तथा दृढ बन्धनों से बंधे हुए लोहम
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