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विपाकश्रुत-१/४/२४
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पर तलते, भूनते और शूल द्वारा पकाते हुए अपनी आजीविका चलाते थे । वह छण्णिक स्वयं भी उन मांसों के साथ सुरा आदि पांच प्रकार के मद्यों का आस्वादन विस्वादन करता वह हुआ जीवनयापन कर रहा था । उस छण्णिक छागलिक ने अजादि पशुओं के मांसों को खाना तथा मदिराओं का पीना अपना कर्तव्य बना लिया था । इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था । और ऐसे ही पापपूर्ण कर्मों को उसने अपना सवोत्तम आचरण बना रक्खा था । अतएव वह क्लेशोत्पादक और कालुष्यपूर्ण अत्यधिक क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन कर, सात सौ वर्ष की पूर्ण आयु पालकर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ ।
[२५] तदनन्तर उस सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका थी । उसके उत्पन्न होते हुए बालक मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे । इधर छण्णिक नामक छागलिक का जीव चतुर्थ नरक से निकलकर सीधा इसी साहंजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । लगभग नवमास परिपूर्ण हो जाने पर किसी समय भद्रा नामक भार्या ने बालक को जन्म दिया । उत्पन्न होते ही माता-पिता ने उस बालक को शकट के नीचे स्थापित कर दिया-रख दिया और फिर उठा लिया । उठाकर यथाविधि संरक्षण, संगोपन व संवर्द्धन किया । यावत् यथासमय उसके माता-पिता ने कहा-उत्पन्न होते ही हमारा यह बालक शकट के नीचे स्थापित किया गया था, अतः इसका 'शकट' ऐसा नामाभिधान किया जाता है । शकट का शेष जीवन उज्झित की तरह समझना ।
इधर सुभद्र सार्थवाह लवण समुद्र में कालधर्म को प्राप्त हुआ और शकट की माता भद्रा भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी । तब शकटकुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से निकाल दिया गया। अपने घर से निकाले जाने पर शकटकुमार साहजनी नगरी के श्रृंगाटक आदि स्थानों में भटकता रहा तथा जुआरियों के अड्डो तथा शराबघरों में घूमने लगा । किसी समय उसकी सुदर्शना गणिका के साथ गाढ़ प्रीति हो गयी । तदनन्तर सिंहगिरि राजा का अमात्य मन्त्री सुषेण किसी समय उस शकटकुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से निकलवा देता है और सुदर्शना गणिका को अपने घर में पत्नी के रूप में रख लेता है । इस तरह घर में पत्नी के रूप में रखी हुई सुदर्शना के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विशिष्ट कामभोगों को यथारुचि उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता है ।
घर से निकाला गया शकट सुदर्शना वेश्या में मूर्छित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त होकर अन्यत्र कहीं भी सुख चैन, रति, शान्ति नहीं पा रहा था । उसका चित्त, मन, लेश्या अध्यवसाय उसी में लीन रहता था । वह सुदर्शना के विषय में ही सोचा करता, उसमें करणों को लगाए रहता, उसी की भावना से भावित रहता । वह उसके पास जाने की ताक में रहता
और अवसर देखता रहता था । एक बार उसे अवसर मिल गया । वह सुदर्शना के घर में घुस गया और फिर उसके साथ भोग भोगने लगा । इधर एक दिन स्नान करके तथा सर्व अलङ्कारों से विभूषित होकर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित सुषेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया । आते ही उसने सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए शकट कुमार को देखा। देखकर वह क्रोध के वश लाल-पीला हो, दांत पीसता हुआ मस्तक पर तीन सल वाली भूकुटि