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विपाकश्रुत-१/५/२७
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भय से मुक्त तथा समृद्धि से समृद्ध थी । उस नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान था । उसमें श्वेतभद्र यक्ष का आयतन था ।
उस कौशम्बी नगरी में शतानीक राजा था । जो हिमालय पर्वत आदि के समान महान् और प्रतापी था । उसको मृगादेवी रानी थी । उस शतानीक राजा का पुत्र और रानी मृगादेवी का आत्मज उदयन नाम का एक कुमार था, जो सर्वेन्द्रिय सम्पन्न था और युवराज पद से अलंकृत था । उस उदयनकुमार की पद्मावती नाम की देवी थी । उस शतानीक राजा का सोमदत्त पुरोहित था, जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था । उस सोमदत्त पुरोहित को वसुदत्ता नाम की भार्या थी, तथा सोमदत्त का पुत्र एवं वसुदत्ता का आत्मज बृहस्पतिदत्त नाम का सर्वाङ्गसम्पन्न एक सुन्दर बालक था ।
उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी कौशम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में पधारे । गौतम स्वामी पूर्ववत् कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ गए । और लौटते हुए राजमार्ग में पधारे । वहाँ हाथियों, घोडो और बहुसंख्यक पुरुषों को तथा उन पुरुषों के बीच एक वध्य पुरुष को देखा । उनको देखकर मन में विचार करते हैं और स्वस्थान पर आकर भगवान् से उसके पूर्व-भव के सम्बन्ध में पृच्छा करते हैं । भगवान् इस प्रकार वर्णन करते हैं-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त उपद्रवों से मुक्त तथा धनधान्यादि से परिपूर्ण नगर था | उस सर्वतोभद्र नगर में जितशत्रु राजा था । महेश्वरदत्त पुरोहित था जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुशल था । ।
महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य की एवं बल की वृद्धि के लिये प्रतिदिन एक-एक ब्राह्मण बालक, क्षत्रिय बालक, वैश्य बालक और शूद्र बालक को पकड़वा लेता था और पकड़वाकर, जीते जी उनके हृदयों के मांसपिण्डों को ग्रहण करवाता-निकलवा लेता था
और जितशत्रु राजा के निमित्त उनसे शान्ति-होम किया करता था । इसके अतिरिक्त वह पुरोहित अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दो-दो बालकों के. चार-चार मास में चार-चार के. छह मास में आठ-आठ बालकों के और संवत्सर-वर्ष में सोलह-सोलह बालकों के हृदयों के मांसपिण्डों से शान्तिहोम किया करता था । जब-जब जितशत्रु राजा का किसी शत्रु के साथ युद्ध होता तब-तब वह महेश्वरदत्त पुरोहित एक सौ आठ ब्राह्मण बालकों, एक सौ आठ क्षत्रिय बालकों, एक सौ आठ वैश्यबालकों और एक सौ आठ शूद्रबालकों को अपने पुरुषों द्वारा पकड़वाकर और जीते जी उनके हृदय के मांसपिण्डों को निकलवाकर जितशत्रु नरेश की विजय के निमित्त शान्तिहोम करता था । उसके प्रभाव से जितशत्रु राजा शीघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता था ।
[२८] इस प्रकार के क्रूर कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला, क्रूरकर्मों में प्रधान, नाना प्रकार के पापकर्मों को एकत्रित कर अन्तिम समय में वह महेश्वरदत्त पुरोहित तीन हजार वर्ष का परम आयुष्य भोगकर पांचवें नरक में उत्कृष्ट सत्तरह सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुआ । पांचवें नरक से निकलकर सीधा इसी कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या के उदर में पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ । उस बालक के माता-पिता ने जन्म से बारहवें दिन नामकरण संस्कार करते हुए कहा-यह बालक सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का