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विपाकश्रुत-१/१/४
समझ लेना ।
[५] उस मृगाग्रम नामक नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा था । उस की मृगा नामक रानी थी । उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगा देवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का एक बालक था । वह बालक जन्म के समय से ही अन्धा, गूंगा, बहरा, लूला, हुण्ड था वह वातरोग से पीड़ित था । उसके हाथ, पैर, कान, आँख और नाक भी न थे । इन अंगोपांगों का केवल आकार ही था और वह आकार - चिह्न भी नाम मात्र का था । वह मृगादेवी गुप्त भूमिगृह में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस बालक का पालन-पोषण करती हुई जीवन बिता रही थी । उस मृगाग्राम में एक जन्मान्ध पुरुष रहता था । आँखों वाला एक व्यक्ति उसकी लकड़ी पकड़े रहा रहता था । उसके मस्तक के बाल बिखरे हुए थे । उसके पीछे मक्खियों के झुण्ड भिनभिनाते रहते थे । ऐसा वह जन्मान्ध पुरुष मृगाग्राम नगर के घरघर में कारुण्यमय भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका चला रहा था ।
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उसका तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर पधारे । जनता दर्शनार्थ निकली। तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराजा कूणिक की तरह नगर से चला यावत् समवसरण में जाकर भगवान् की पर्युपासना करने लगा । तदनन्तर वह जन्मान्ध पुरुष नगर के कोलाहलमय वातावरण को जानकर उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय ! क्या आज मृगाग्राम नगर में इन्द्र- महोत्सव है । यावत् नगर के बाहर जा रहे हैं ? उस पुरुष ने जन्मान्ध से कहा- आज इस गाम में इन्द्रमहोत्सव नहीं है किन्तु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं; वहाँ ये सब जा रहे हैं । तब उस जन्मान्ध पुरुष ने कहा- 'चलो, हम भी चलें और भगवान् की पर्युपासना करें । तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह जन्मान्ध पुरुष जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर बिराजमान थे वहाँ पर आ गया । तीन बार प्रदक्षिणा करता है । वंदन - नमस्कार करता है । भगवान् की पर्युपासना में तत्पर हुआ । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने विजय राजा तथा नगर- जनता को धर्मोपदेश दिया । यावत् कथा सुनकर विजय राजा तथा परिषद् यथास्थान चले गये ।
[६] उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार भी वहाँ बिराजमान थे । गौतमस्वामी ने उस जन्मान्ध पुरुष को देखा जातश्रद्ध गौतम इस प्रकार बोले- 'अहो भगवन् ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप हो ?' भगवान् ने कहा- 'हाँ, है !' 'हे प्रभो ! वह पुरुष कहाँ है ?' भगवान् ने कहा - 'हे गौतम ! इसी मृगाग्राम नगर में विजयनरेश का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का बालक है, जो जन्मतः अन्धा तथा जन्मान्धरूप है । उसके हाथ, पैर, चक्षु आदि अङ्गोपाङ्ग भी नहीं हैं । मात्र उन अङ्गोपाङ्गों के आकार ही हैं ! उसकी माता मृगादेवी उसका पालन-पोषण सावधानी पूर्वक छिपे छिपे कर रही है । तदनन्तर भगवान् गौतम ने भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में वन्दन - नमस्कार किया । उनसे विनती की - 'हे प्रभो ! यदि आपकी अनुज्ञा प्राप्त हो तो मैं मृगा -पुत्र को देखना चाहता हूँ ।' भगवान् ने फरमाया'गौतम ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो !'
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न व सन्तुष्ट हुए श्री गौतमस्वामी भगवान् के पास से निकले । विवेकपूर्वक भगवान् गौतम स्वामी जहाँ