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विपाकश्रुत-१/१/६
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मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे; वहाँ पधारकर प्रदक्षिणा करके वन्दन तथा नमस्कार किया और इस प्रकार बोले-भगवन् ! आपश्री से आज्ञा प्राप्त करके मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलता हुआ जहाँ मृगादेवी का घर था वहाँ मैं पहुंचा । मुझे आते हुए देखकर मृगादेवी हृष्ट तुष्ट हुई यावत् पीव व शोणित-रक्त का आहार करते हुए मृगा-पुत्र को देखकर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ अहह ! यह बालक पूर्वजन्मोपार्जित महापापकर्मों का फल भोगता हुआ बीभत्स जीवन बिता रहा है ।
[७] भगवन् ! यह पुरुष मृगापुत्र पूर्वभव में कौन था ? किस नाम व गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा नगर का रहनेवाला था ? क्या देकर, क्या भोगकर, किन-किन कर्मों का आचरण कर और किन-किन पुराने कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है ? श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम को कहा-'हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में शतद्वार नामक एक समृद्धिशाली नगर था । उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था । उस नगर से कुछ दूरी पर अग्निकोण में विजयवर्द्धमान नामक एक खेट नगर था जो ऋद्धि-समृद्धि आदि से परिपूर्ण था। उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था । उस खेट में इक्काई नाम का राष्ट्रकूट था, जो परम अधार्मिक यावत् दुष्प्रत्यानन्दी था । वह एकादि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य करता हुआ जीवन बिता रहा था ।
तदनन्तर वह एकादि नाम का प्रतिनिधि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को करों-महसूलों से, करों की प्रचुरता से, किसानों को दिये धान्यादि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, रिश्वत से, दमन से, अधिक ब्याज से, हत्यादि के अपराध लगा देने से, धन-ग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि व्यक्तियों के पोषण से, ग्रामादि को जलाने से, पथिकों को मार पीट करने से, व्यथित-पीड़ित करता हुआ, धर्म से विमुख करता हुआ, कशादि से ताड़ित और सधनों को निर्धन करता हुआ प्रजा पर अधिकार जमा रहा था । तदनन्तर वह राजप्रतिनिधि एकादि विजयवर्द्धमान खेट के राजामांडलिक, ईश्वर, तलवर ऐसे नागरिक लोग, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्त मन्त्रणाओं में, निश्चयों और विवादास्पद निर्णयों में सुनता हुआ भी कहता था कि “मैंने नहीं सुना" और नहीं सुनता हुआ कहता था कि “मैंने सुना है ।" इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ
और जानता हुआ भी वह कहता था कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं । इसी प्रकार के वंचना-प्रधान कर्म करने वाला मायाचारों को ही प्रधान कर्तव्य माननेवाला, प्रजा को पीड़ित करने रूप विज्ञान वाला और मनमानी करने को ही सदाचरण माननेवाला, वह प्रान्ताधिपति दुःख के कारणीभूत परम कुलषित पापकर्मों को उपार्जित करता हुआ जीवन-यापन कर रहा था । उसके बाद किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगातंक उत्पन्न हो गये । जैसे कि
[८] श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, अर्श, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तक-शूल, अरोचक, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, जलोदर और कुष्टरोग ।
[९] तदनन्तर उक्त सोलह प्रकार के भयंकर रोगों से खेद को प्राप्त वह एकादि नामक