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अन्तकृदशा-६/१५/३९
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तब अतिमुक्त कुमार ने दूसरी और तीसरी बार भी यही कहा–'माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट धर्म सुना है और वह धर्म मुझे इष्ट, प्रतीष्ट और रुचिकर हुआ है। अतएव मैं हे माता-पिता ! आपकी अनुमति प्राप्त कर श्रमण भगवान महावीर के निकट मुण्डित होकर, गृहत्याग करके अनगार-दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ ।' इस पर माता-पिता अतिमुक्त कुमार से इस प्रकार बोले-'हे पुत्र ! अभी तुम बालक हो, असंबुद्ध हो । अभी तुम धर्म को क्या जानो ?' 'हे माता-पिता ! मैं जिसे जानता हूँ, उसे नहीं जानता हूँ और जिसको नहीं जानता हूँ उसको जानता हूँ।' पत्र ! तुम जिसको जानते हो उसको नहीं जानते और जिसको नहीं जानते उसको जानते हो, यह कैसे ? 'माता-पिता ! मैं जानता हूँ कि जो जन्मा है उसको अवश्य मरना होगा, पर यह नहीं जानता कि कब, कहाँ, किस प्रकार और कितने दिन बाद मरना होगा ? फिर मैं यह भी नहीं जानता कि जीव किन कर्मों के कारण नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-योनि में उत्पन्न होते हैं, पर इतना जानता हूँ कि जीव अपने ही कर्मों के कारण नरक यावत देवयोनि में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार निश्चय ही हे माता-पिता ! मैं जिसको जानता हूँ उसी को नहीं जानता और जिसको नहीं जानता उसी को जानता हूँ। अतः मैं आपकी आज्ञा पाकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूं।"
अतिमुक्त कुमार को माता-पिता जब बहुत-सी युक्ति-प्रयुक्तियों से समझाने में समर्थ नहीं हुए, तो बोले-हे पुत्र ! हम एक दिन के लिए तुम्हारी राज्यलक्ष्मी की शोभा देखना चाहते हैं । तब अतिमुक्त कुमार माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करके मौन रहे । तब महाबल के समान उनका राज्याभिषेक हुआ फिर भगवान् के पास दीक्षा लेकर सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रमण-चारित्र का पालन किया । गुणरत्नसंवत्सर तप का आराधन किया, यावत् विपुलाचल पर्वत पर सिद्ध हुए ।
वर्ग-६ अध्ययन-१६ । [४०] उस काल और उस समय वाणारसी नगरी में काममहावन उद्यान था । अलक्ष नामक राजा था । उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर यावत् महावन उद्यान में पधारे । जनपरिषद् प्रभु-वन्दन को निकली, राजा अलक्ष भी प्रभु महावीर के पधारने की बात सुनकर प्रसन्न हुआ और कोणिक राजा के समान वह भी यावत् प्रभु की सेवा में उपासना करने लगा । प्रभु ने धर्मकथा कही । तब अलक्ष राजा ने श्रमम भगवान् महावीर के पास 'उदायन' की तरह श्रमणदीक्षा ग्रहण की । विशेषता यह कि उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाया । ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रमणचारित्र का पालन किया यावत् विपुलगिरि पर्वत पर जाकर सिद्ध हुए । इस प्रकार “हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीर ने अष्टम अंग अंतगड दशा के छठे वर्ग का यह अर्थ कहा है ।" वर्ग-६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(वर्ग-७) [४१] भगवन् ! यावत् मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने अंतगडदशा के छठे वर्ग का जो अर्थ बताया है, उसका मैंने श्रवण कर लिया है, अब श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें वर्ग का जो अर्थ कहा है उसे सुनाने की कृपा करें । हे जंबू ! सातवें वर्ग