________________
९४
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अचित्त हो, जो शुद्ध हो, ऐसी भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर गए हुए साधु को आसन पर बैठ कर, धर्मोपदेश देकर या कथाकहानी सुना कर प्राप्त किया हुआ आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए । वह आहार चिकित्सा, मंत्र, मूल, औषध आदि के हेतु नहीं होना चाहिए । स्त्री पुरुष आदि के शुभाशुभसूचक लक्षण, उत्पात, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि स्वप्न, ज्योतिष, मुहर्त आदि का प्रतिपादक शास्त्र, विस्मयजनक चामत्कारिक प्रयोग या जादू के प्रयोग के कारण दिया जाता आहार नहीं होना चाहिए । दम्भ करके भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्वामी के घर की या पुत्र आदि की रखवाली करने के बदले प्राप्त होने वाली भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्थ के पुत्रादि को शिक्षा देने या पढ़ाने के निमित्त से भी भिक्षा ग्राह्य नहीं है । गृहस्थ का वन्दन-स्तवन-प्रशंसा करके, सन्मान-सत्कार करके अथवा पूजासेवा करके और वन्दन, मानन एवं पूजन-इन तीनों को करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करना चाहिए ।
(पूर्वोक्त वन्दन, मानन एवं पूजन से विपरीत) न तो गृहस्थ की हीलना करके, न निन्दना करके और न गर्दा करके तथा हीलना, निन्दना एवं गर्दा करके भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । इसी तरह साधु को भय दिखला कर, तर्जना करके और ताड़ना करके भी भिक्षा नहीं ग्रहण करना चाहिए और यह तीनों-भय-तर्जना-ताड़ना करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए । अभिमान से, दरिद्रता दिखाकर, मायाचार करके या क्रोध करके, दीनता दिखाकर और न यह तीनों-गौरव-क्रोध-दीनता दिखा कर भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । मित्रता प्रकट करके, प्रार्थना करके और सेवा करके भी अथवा यह तीनों करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए । किन्तु अज्ञात रूप से, अगृद्ध, मूर्छा से रहित होकर, आहार और आहारदाता के प्रति द्वेष न करते हुए, अदीन, अपने प्रति हीनता भाव न रखते हुए, अविषादी वचन कहकर, निरन्तर मन-वचन-काय को धर्मध्यान में लगाते हुए, प्राप्त संयमयोग में उद्यम, अप्राप्त संयम योगों की प्राप्ति में चेष्टा, विनय के आचरण और क्षमादि के गुणों के योग से युक्त होकर साधु को भिक्षा की गवेषणा में निरत-तत्पर होना चाहिए ।
यह प्रवचन श्रमण भगवान् महावीर ने जगत् के समस्त जीवों की रक्षा के लिए समीचीन रूप में कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भविक है तथा भविष्यत् काल में भी कल्याणकर है । यह भगवत्प्रवचन शुद्ध है और दोषों से मुक्त रखनेवाला है, न्याययुक्त है, अकुटिल है, यह अनुत्तर है तथा समस्त दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है ।
[३५] पाँच महाव्रतों-संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये-आगे कही जाने वाली पाँच भावनाएँ प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं । खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारहितता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फूल, फल, छाल, प्रवाल-पत्ते-कोंपल-कंद, मूल, जल, मिट्टी, बीज एवं हरितकायदूब आदि को बचाते हुए, सम्यक् प्रकार से चलना चाहिए । इस प्रकार चलनेवाले साधु को निश्चय ही समस्त प्राणी की हीलना, निन्दा, गर्हा, हिंसा, छेदन, भेदन, व्यथित, नहीं करना चाहिए । जीवों को लेश मात्र भी भय या दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए । इस प्रकार (के