________________
अनुत्तरोपपातिकादशा- ३/१/१०
५५
नामात्र के लिये भी नहीं रह गया था । इसी प्रकार सब अङ्गों के विषय में जानना चाहिए। विशेषता केवल इतनी है कि उदर-भाजन, कान, जिह्वा और ओंठ इनके विषय में 'अस्थि' नहीं कहना चाहिए ।
धन्य अनगार मांस आदि के अभाव से सूखे हुए और भूख के कारण रूखे पैर, जङ्घ और ऊरु से, भयङ्कर रूप से प्रान्त भागों में उन्नत हुए कटि-कटाह से, पीठ के साथ मिले हुए उदर-भाजन से, पृथक् पृथक् दिखाई देती हुई पसलियों से, रुद्राक्ष माला के समान स्पष्ट गिनी जाने वाली पृष्ठ-करण्डक की सन्धियों से, गङ्गा की तरंगों के समान उदर-कटक के प्रान्त भागों से, सूखे हुए सांप के समान भुजाओं से, घोड़े की ढीली लगाम के समान चलते हुए हाथों से, कम्पनवायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान कांपती हुई शीर्ष घटी से, मुरझाए हुए मुखकमल से क्षीण - ओष्ठ होने के कारण घड़े के मुख के समान विकराल मुख से और आंखों के भीतर धँस जाने के कारण इतना कृश हो गया था कि उसमें शारीरिक बल बिलकुल भी बाकी नहीं रह गया था । वह केवल जीव के बल से ही चलता, फिरता और खड़ा होता था । थोड़ा सा कहने के लिये भी वह स्वयं खेद मानता था । जिस प्रकार एक कोयलों की गाड़ी जलते हुए शब्द करती है, इसी प्रकार उसकी अस्थियां भी चलते हुए शब्द करती थीं । वह स्कन्दक के समान हो गया था । भस्म से ढकी हुई आग के समान वह भीतर से दीप्त हो रहा था । वह तेज से, तप से और तप-तेज की शोभा से शोभायमान होता हुआ विचरता था ।
1
[११] उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशैलक चैत्य था । श्रेणिक राजा था। उसी काल और उसी समय में श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उक्त चैत्य में बिराजमान हुए । यह सुनकर पर्षदा निकली, भगवान् की सेवा में उपस्थित हुई, श्रेणिक राजा भी उपस्थित हुआ । भगवान् ने धर्म-कथा सुनाइ और लोग वापिस चले गये । श्रेणिक राजा ने इस कथा को सुन कर भगवान् को वन्दना और नमस्कार कर के कहा - "हे भगवन् ! इन्द्रभूति - प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में कौनसा श्रमण अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सब से बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है ?" "हे श्रेणिक ! धन्य अनगार अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सब से बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है ।" "हे भगवन् ! किस कारण से आप कहते हैं ?" "हे श्रेणिक ! उस काल और उस समय में काकन्दी नगरी थी । उसके बाहर सहस्त्राम्रवन नाम का उद्यान था । इसी समय कभी पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ मैं जहां काकन्दी नगरी थी और जहां सहस्त्राम्रवन उद्यान था वहीं पहुंच गया और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करते हुए वहीं पर विचरने लगा । नगरी की जनता यह सुनकर वहां आई और मैंने धर्म - कथा सुनाई । धन्य के ऊपर इसका विशेष प्रभाव पड़ा और वह तत्काल ही गृहस्थ को छोड़ कर साधु-धर्म में दीक्षित हो गया ।
उसने तभी से कठोर व्रत धारण कर लिया और केवल आचम्ल से पारण करने लगा। वह जब आहार और पानी भिक्षा से लाता था तो मुझको दिखाकर बिना किसी लालसा के आहार करता था । धन्य अनगार के पादों से लेकर सारे शरीर का वर्णन पूर्ववत् जानना । उसके सब अङ्ग तप-रूप लावण्य से शोभित हो रहे थे । इसीलिए हे श्रेणिक ! मैंने कहा है कि चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महातप और महा-कर्मों की निर्जरा करने वाला है ।