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प्रश्नव्याकरण-१/२/११
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सिक्कों से आजीविका चलानेवाले, जुलाहे, सुनार, कारीगर, दूसरों को ठगनेवाले, दलाल, चाटुकार, नगररक्षक, मैथुनसेवी, खोटा पक्ष लेनेवाले, चुगलखोर, उत्तमर्ण, कर्जदार, किसी के बोलने से पूर्व ही उसके अभिप्राय को ताड़ लेनेवाले साहसिक, अधम, हीन, सत्पुरुषों का अहित करने वाले दुष्ट जन अहंकारी, असत्य की स्थापना में चित्त को लगाए रखनेवाले, अपने को उत्कृष्ट बतानेवाले, निरंकुश, नियमहीन और विना विचारे यद्वा-तद्वा बोलनेवाले लोग, जो असत्य से विरत नहीं हैं, वे (असत्य) बोलते हैं !
दूसरे, नास्तिकवादी, जो जोक में विद्यमान वस्तुओं को भी अवास्तविक कहने के कारण कहते हैं कि शून्य है, क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है । वह मनुष्यभव में या देवादिपरभव में नहीं जाता । वह पुण्य-पाप का स्पर्श नहीं करता । सुकृत या दुष्कृत का फल भी नहीं है । यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है । वायु के निमित्त से वह सब क्रियाएँ करता है । कुछ लोग कहते हैं-श्वासोच्छ्वास की हवा ही जीव है । कोई पाँच स्कन्धों का कथन करते हैं । कोई-कोई मन को ही जीव मानते हैं । कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं । किन्हीं-किन्हीं का मन्तव्य है कि शरीर सादि और सान्त है-यह भव ही एक मात्र भव है । इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है । मृषावादी ऐसा कहते हैं। इस कारण दान देना, व्रतों का आचरण, पोषध की आराधना, तपस्या, संयम का आचरण, ब्रह्मचर्य का पालन आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का फल नहीं होता । प्राणवध और असत्यभाषण भी नहीं हैं । चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं हैं । परिग्रह और अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं | नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियाँ नहीं हैं । देवलोक भी नहीं है । मोक्ष-गमन या मुक्ति भी नहीं है | माता-पिता भी नहीं हैं । पुरुषार्थ भी नहीं है । प्रत्याख्यान भी नहीं है । भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं हैं और न मृत्यु है । अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी कोई नहीं होते । न कोई कृषि है, न कोई मुनि है । धर्म और अधर्म का थोड़ा या बहुत फल नहीं होता । इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में प्रवृत्ति करो । न कोई शुभ या अशुभ क्रिया है । इस प्रकार लोकविप -रीत मान्यतावाले नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए इस प्रकार का कथन करते हैं।
कोई-कोई असद्भाववादी मूढ जन दूसरा कुदर्शन-इस प्रकार कहते हैं यह लोक अंडे से प्रकट हुआ है । इस लोक का निर्माण स्वयं स्वयंभू ने किया है । इस प्रकार वे मिथ्या कथन करते हैं । कोई-कोई कहते हैं कि यह जगत् प्रजापति या महेश्वर ने बनाया है । किसी का कहना है कि यह समस्त जगत् विष्णुमय है । किसी की मान्यता है कि आत्मा अकर्ता है किन्तु पुण्य और पाप का भोक्ता है । सर्व प्रकार से तथा सर्वत्र देश-काल में इन्द्रियां ही कारण हैं । आत्मा नित्य है, निष्क्रिय है, निर्गुण है और निर्लेप है । असद्भाववादी इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं । कोई-कोई ऋद्धि, रस और साता के गारव से लिप्त या इनमें अनुरक्त बने हुए और क्रिया करने में आलसी बहुत से वादी धर्म की मीमांसा करते हुए इस प्रकार मिथ्या प्ररूपणा करते हैं-इस जीवलोक में जो कुछ भी सुकृत या दुष्कृत दृष्टिगोचर होता है, वह सब यदृच्छा से, स्वभाव से अथवा दैवतप्रभाव से ही होता है । इस लोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पुरुषार्थ से किया गया तत्त्व हो । लक्षण और विद्या की की नियति ही है, ऐसा कोई कहते हैं ।