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अनुत्तरोपपातिकादशा-३/२ से १०/१३
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सुनक्षत्र अनगार जिसी दिन मुण्डित हो प्रव्रजित हुआ उसी दिन से उसने अभिग्रह धारण कर लिया । यावत् जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है उसी प्रकार वह भोजन करने लगा। संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । इसी बीच श्री भगवान् महावीर स्वामी जनपद-विहार के लिये बाहर गये और सुनक्षत्र अनगार ने एकादशाङ्ग शास्त्र का अध्ययन किया । वह संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । तदनु अत्यन्त कठोर तप के कारण स्कन्दक के समान सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी कृश हो गया ।
उस काल और उस समय राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । गुणशैलक चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे । परिषद् धर्म-कथा सुनने को आई और राजा भी आया। धर्म-कथा सुनकर परिषद् और राजा चले गये । तदनु मध्यरात्रि के समय धर्म-जागरण करते हुए सुनक्षत्र अनगार को स्कन्दक के समान भाव उत्पन्न हुए । वह बहुत वर्ष की दीक्षा पालन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव-रूप से उत्पन्न हुए | उसकी वहां पर तेतीस सागरोपम की आयु है । वहां से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेंगे । इसी प्रकार शेष आठ अध्ययनों के विषय में भी जानना चाहिए । विशेषता इतनी कि अनुक्रम से दो राजगृह नगर में, दो साकेतपुर में, दो वाणिज-ग्राम में, नौवाँ हस्तिनापुर में और दशवां राजगृह नगर में उत्पन्न हुए । इनमें नौ की माता भद्रा थीं और नौ को बत्तीस बत्तीस दहेज मिले । नौ का निष्क्रमण थावच्यापुत्र समान हुआ । केवल वहेल्लकुमार का निष्क्रमण उसके पिता के द्वारा हुआ। छः मास का दीक्षा-पर्याय वहेल्ल अनगार ने पालन किया, नौ मास का धन्य ने । शेष आठों ने बहुत वर्ष तक दीक्षा-पर्याय पालन किया । दशों ने एक एक मास की संलेखना धारण की । सब के सब सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए और वहां से च्युत होकर सब महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-गति प्राप्त करेंगे ।
हे जम्बू ! इस प्रकार धर्म-प्रवर्तक, चार तीर्थ स्थापन करने वाले, स्वयं बुद्ध, लोकनाथ, लोकों को प्रकाशित और प्रदीप्त करने वाले, अभय प्रदान करने वाले, शरण देने वाले, ज्ञान-चक्षु प्रदान करने वाले, मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले, धर्म देने वाले, धर्मोपदेशक, धर्मवरचतुरन्त-चक्रवर्ती, अनभिभूत श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन वाले, राग-द्वेष के जीतने वाले, ज्ञापक, बुद्ध, बोधक, मुक्त, मोचक, स्वयं संसार-सागर से तैरने वाले और दूसरों को तराने वाले, कल्याणरूप, नित्य स्थिर, अन्त-रहित, विनाश-रहित, शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधिरहित, पुनः-पुनः सांसारिक जन्म-मरण से रहित सिद्ध-गति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिकदशा के तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है ।
| ९| अनुत्तरोपपातिकदशा-आगमसूत्र-९-हिन्दी अनुवाद पूर्ण