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प्रश्नव्याकरण- १/१/८
यमकालिक देवों द्वारा त्रास को प्राप्त होते हैं और भयभीत होकर शब्द करते हैं - ( नारक जीव ) किस प्रकार रोते-चिल्लाते हैं ?
अज्ञातबन्धु ! हे स्वामिन् ! हे भ्राता ! अरे बाप! हे तात ! हे विजेता ! मुझे छोड़ दो । मैं मर रहा हूँ । मैं दुर्बल हूँ ! मैं व्याधि से पीडित हूँ । आप क्यों ऐसे दारुण एवं निर्दय हो रहे हैं ? मेरे ऊपर प्रहार मत करो । मुहूर्त भर सांस तो लेने दीजिए ! दया कीजिए । रोष न कीजिए । मैं जरा विश्राम ले लूँ । मेरा गला छोड़ दीजिए । मैं मरा जा रहा हूँ । मैं प्यास से पीडित | पानी दे दीजिए । 'अच्छा, हाँ, यह निर्मल और शीतल जल पीओ ।' ऐसा कह कर नरकपाल नारकों को पकड़ कर खौला हुआ सीसा कलश से उनकी अंजली में उड़ेल देते हैं । उसे देखते ही उनके अंगोपांग कांपने लगते हैं । उनके नेत्रों से आंसू टपकने लगते हैं । फिर वे कहते हैं- 'हमारी प्यास शान्त हो गई !' इस प्रकार करुणापूर्ण वचन बोलते हुए भागने के लिए दिशाएँ देखने लगते हैं । अन्ततः वे त्राणहीन, शरणहीन, अनाथ, बन्धुविहीन - एवं भय के मारे बडा करके मृग की तरह बड़े वेग से भागते हैं ।
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कोई-कोई अनुकम्पा - विहीन यमकायिक उपहास करते हुए इधर-उधर भागते हुए उन नारक जीवों को जबर्दस्ती पकड़ कर और लोहे के डंडे से उनका मुख फाड़ कर उसमें उबलता हुआ शीशा डाल देते हैं । उबलते शीशे से दग्ध होकर वे नारक भयानक आर्त्तनाद करते हैं ।
कबूतर की तरह करुणाजनक आक्रंदन करते हैं, खूब रुदन करते हुए अश्रु बहाते हैं । नरकापाल उन्हें रोक लेते हैं, बांध देते हैं । तब आर्त्तनाद करते हैं, हाहाकार करते हैं, बड़बड़ाते हैं, तब नरकापाल कुपित होकर और उच्च ध्वनि से उन्हें धमकाते हैं । कहते हैं इसे पकड़ो, मारो, प्रहार करो, छेद डालो, भेद डालो, इसकी चमड़ी उधेड़ दो, नेत्र बाहर निकाल लो, इसे काट डालो, खण्ड-खण्ड कर डालो, हनन करो, इसके मुख में शीशा उड़ेल दो, इसे उठा कर पटक दो या मुख में और शीशा डाल दो, घसीटो, उलटो, घसीटो। नरकपाल फिर फटकारते हुए कहते हैं - बोलता क्यों नहीं ! अपने पापकर्मों को, अपने कुकर्मों को स्मरण कर ! इस प्रकार अत्यन्त कर्कश नरकपालों की ध्वनि की वहाँ प्रतिध्वनि होती है । नारक जीवों के लिए वह ऐसी सदैव त्रासजनक होती है कि जैसे किसी महानगर में आग लगने पर घोर शब्द- होता है, उसी प्रकार निरन्तर यातनाएँ भोगने वाले नारकों का अनिष्ट निर्घोष वहाँ सुना जाता है । वे यातनाएँ कैसी हैं ?
नारकों को असि वन में चलने को बाध्य किया जाता है, तीखी नोक वाले दर्भ के वन में चलाया जाता है, कोल्हू में डाल कर पेरा जाता है, सूई की नोक समान अतीव तीक्ष्ण कण्टकों के सदृश स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है, क्षारयुक्त पानी वाली वापिका में पटक दिया जाता है, उबलते हुए सीसे आदि से भरी वैतरणी नदी में बहाया जाता है, कदम्बपुष्प के समान - अत्यन्त तप्त - रेत पर चलाया जा है, जलती हुई गुफा में बंद कर दिया जाता है, उष्णोष्ण एवं कण्टकाकीर्ण दुर्गम मार्ग में रथ में जोत कर चलाया जाता है, लोहमय उष्ण मार्ग में चलाया जाता है और भारी भार वहन कराया जाता है । वे अशुभ विक्रियालब्धि से निर्मित सैकड़ों शस्त्रों से परस्पर को वेदना उत्पन्न करते हैं । वे विविध प्रकार के आयुध-शस्त्र कौनसे हैं ? वे शस्त्र ये हैं-मुद्गर, मुसुंढि, करवत, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, कुन्त, तोमर, शूल, लकुट, भिंडिमार, सद्धल, पट्टिस, चम्मेट्ठ, द्रुघण, मौष्टिक, असि - फलक, खङ्ग, चाप,