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आगम: पन्दी अनुवाद
करो।' यह राजाज्ञा पाकर राजसेवकों ने राजगृह नगर में घूम घूम कर राजाज्ञा की घोषणा की और घोषणा करके राजा को सूचित कर दिया ।
उस राजगृह नगर में सुदर्शन नाम के एक धनाढ्य सेठ रहते थे । वे श्रमणोपासकथे और जीव-अजीव का ज्ञाता था यावत् अपनी आत्मा को भावित-वासित करते हुए विहरण कर रहे थे । उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह पधारे और बाहर उद्यान में ठहरे । उनके पधारने के समाचार सुनकर राजगृह नगर के श्रृंगाटक राजमार्ग आदि स्थानों में बहुत से नागरिक परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे यावत् विपुल अर्थ को ग्रहण करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ? इस प्रकार बहुत से नागरिकों के मुख से भगवान् के पधारने के समाचार सुनकर सुदर्शन सेठ के मन में इस प्रकार, चिंतित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-"निश्चय ही श्रमण भगवान् महावीर नगर में पधारे हैं और बाहर गुणशीलक उद्यान में विराजमान हैं, इसलिये मैं जाऊं और श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करूं ।" ऐसा सोचकर वे अपने माता-पिता के पास आये और हाथ जोड़कर बोले
हे माता-पिता! श्रमण भगवान महावीर स्वामी नगर के बाहर उद्यान में विराज रहे हैं। अतः मैं चाहता हूं कि मैं जाऊं और उन्हें वंदन-नमस्कार करूं । यावत् पर्युपासना करूं । यह सुनकर माता-पिता, सुदर्शन सेठ से इस प्रकार बोले-हे पुत्र ! निश्चय ही अर्जुन मालाकार यावत् मनुष्यों को मारता हुआ घूम रहा है इसलिये हे पुत्र ! तुम श्रमण भगवान् महावीर को वंदन करने के लिये नगर के बाहर मत निकलो । सम्भव है तुम्हारे शरीर को हानि हो जाय। अतः यही अच्छा है कि तुम यही से श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार कर लो।" तब सुदर्शन सेठ ने कहा “हे माता-पिता ! जब श्रमण भगवान् महावीर यहां पधारे हैं, और बाहर उद्यान में विराजमान हैं तो मैं उनको यहीं से वंदना-नमस्कार करूं यह कैसे हो सकता है । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं वही जाकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन करूं, नमस्कार करूं यावत् उनकी पर्युपासना करूं ।" सुदर्शन सेठ को माता-पिता जब अनेक प्रकार की युक्तियों से नहीं समझा सके तब माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक इस प्रकार कहा
"हे पुत्र ! फिर जिस प्रकार तुम्हें सुख उपजे वैसा करो ।" सुदर्शन सेठ ने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करके स्नान किया और धर्मसभा में जाने योग्य शुद्ध मांगलिक वस्त्र धारण किये फिर अपने घर से निकला और पैदल ही राजगृह नगर के मध्य से चलकर मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के न अति दूर औरन अति निकट से होते हुए जहाँ गुणशील नामक उद्यान और जहां श्रमण भगवान् महावीर थे उस ओर जाने लगा | तब उस मुद्गरपाणि यक्ष ने सुदर्शन श्रमणोपासक को समीप से ही जाते हुए देखा । देखकर वह क्रुद्ध हुआ, रुष्ट हुआ, कुपित हुआ, कोपातिरेक से भीषण बना हुआ, क्रोध की ज्वाला से जलता हुआ, दांत पीसता हुआ वह हजार पल भारवाले लोहे के मुद्गर को घुमाते-घुमाते जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था, उस
ओर आने लगा । उस समय क्रुद्ध मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी ओर आता देखकर सुदर्शन श्रमणोपासक मृत्यु की संभावना को जानकर भी किंचित् भी भय, त्रास, उद्वेग अथवा क्षोभ को प्राप्त नहीं हुआ । उसका हृदय तनिक भी विचलित अथवा भयाक्रान्त नहीं नहीं हआ । उसने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया । फिर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठ गया ! बैठकर बाएं घुटने को ऊंचा किया और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक