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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
करके इस प्रकार बोला-“भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, रुचि करता हूं, यावत् आपके चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहता हूं । भगवान् महावीर ने कहा-“देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो ।" तब अर्जुनमाली ने ईशानकोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुंचन किया, वे अनगार हो गये । संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुंडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-"आज से मैं निरंतर बेले-बेले की तपस्या से आजीवन आत्मा को भावित करते हुए विचरूंगा ।" इसके पश्चात् अर्जुन मुनि बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान करते । फिर तीसरे प्रहर में राजगृह नगर में भिक्षार्थ भ्रमण करते थे ।
___ उस समय अर्जुन मुनि को राजगृह नगर में उच्च-नीच-मध्यम कुलों में भिक्षार्थ घूमते हुए देखकर नगर के अनेक नागरिक-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध इसप्रकार कहते-“इसने मेरे पिता को मारा है । इसने मेरी माता को मारा है । भाई को, बहन को, भार्या को, पुत्र को, कन्या को, पुत्रवधू को, एवं इसने मेरे अमुक स्वजन संबंधी या परिजन को मारा है । ऐसा कहकर कोई गाली देता, यावत् ताड़ना करता । इस प्रकार उन बहुत से स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढे और जवानों से आक्रोश-यावत् ताडित होते हुए भी वे अर्जुन मुनि उन पर मन से भी द्वेष नहीं करते हुए उनके द्वारा दिये गये सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए उन कष्टों को समभाव से झेल लेते एवं निर्जरा का लाभ समझते हुए राजगृह नगर के छोटे, बड़े एवं मध्यम कुलों में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए अर्जुन मुनि को कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता
और पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता । वैसी स्थिति में जो भी और जैसा भी अल्प स्वल्प मात्रा में प्रासुक भोजन उन्हें मिलता उसे वे सर्वथा अदीन, अविमन, अकलुष, अमलिन, आकुल-व्याकुलता रहित अखेद-भाव से ग्रहण करते, थकान अनुभव नहीं करते ।
इस प्रकार वे भिक्षार्थ भ्रमण करके वे राजगृह नगर से निकलते और गुणशील उद्यान में, जहां श्रमण भगवान् महावीर बिराजमान थे, वहाँ आते और फिर भिक्षा में मिले हुए आहारपानी को प्रभु महावीर को दिखाते । दिखाकर उनकी आज्ञा पाकर मूर्छा रहित, गृद्धि रहित, राग रहित और आसक्ति रहितः जिस प्रकार बिल में सर्प सीधा ही प्रवेश करता है उस प्रकार राग-द्वेष भाव से रहित होकर उस आहार-पानी का वे सेवन करते । तत्पश्चात् किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के उस गुणशील उद्यान से निकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे । अर्जुन मुनि ने उस उदार, श्रेष्ठ, पवित्र भाव से ग्रहण किये गये, महालाभकारी, विपुल तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए पूरे छह मास श्रमण धर्म का पालन किया। इसके बाद आधे मास की संलेखना से अपनी आत्मा को भावित करके तीस भक्त के अनशन को पूर्ण कर जिस कार्य के लिये व्रत ग्रहण किया था उसको पूर्ण कर वे अर्जुन मुनि यावत् सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गये ।
वर्ग-६-अध्ययन-४ से १४ [२८] उस काल उस समय राजगृह नगर में गुणशीलनामक चैत्य था । श्रेणिक राजा था । काश्यप नाम का एक गाथापति रहता था । उसने मकाई की तरह सोलह वर्ष तक