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मूलश्री और मूलदत्ता |
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
वर्ग - ५ अध्ययन - १
[२०] जम्बूस्वामी ने पुनः पूछा- 'भंते ! श्रमण भगवान् महावीर ने पंचम वर्ग के दस अध्ययन कहे हैं तो प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' हे जंबू ! उस काल उस समय में द्वारका नाम की नगरी थी, यावत् श्रीकृष्ण वासुदेव वहाँ राज्य कर रहे थे । श्रीकृष्ण वासुदेव की पद्मावती नाम की महारानी थी । ( राज्ञीवर्णन जान लेना) । उस काल उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि तीर्थंकर विचरते हुए द्वारका नगरी में पधारे । श्रीकृष्ण वंदन - नमस्कार करने हेतु राजप्रासाद से निकल कर प्रभु के पास पहुँचे यावत् प्रभु अरिष्टनेमि की पर्युपासना करने लगे । उस समय पद्मावती देवी ने भगवान् के आने की खबर सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुई । वह भी देवकी महारानी के समान धार्मिक रथ पर आरूढ़ होकर भगवान् को वंदन करने गई । यावत् नेमिनाथ की पर्युपासना करने लगी । अरिहंत अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव, पद्मावती देवी और परिषद को धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर जन परिषद् वापिस लौट गई ।
तब कृष्ण वासुदेव ने भगवान् नेमिनाथ को वंदन - नमस्कार करके उनसे इस प्रकार पृच्छा की- " - "भगवन् ! बारह योजन लंबी और नव योजन चौड़ी यावत् साक्षात् देवलोक के समान इस द्वारका नगरी का विनाश किस कारण से होगा ?" 'हे कृष्ण !' इस प्रकार संबोधित करते हुए अरिहंत अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया- “हे कृष्ण ! निश्चय ही बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान इस द्वारका नगरी का विनाश मदिरा, अग्नि और द्वैपायन ऋषि के कोप के कारण होगा ।" अरिहन्त अरिष्टनेमि से द्वारका नगरी के विनाश का कारण सुन-समझकर श्रीकृषण वासुदेव के मन में ऐसा विचार, चिन्तन, प्रार्थित एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि वे जालि, मयालि, उवयालि, पुरिससेन, वीरसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, दृढनेमि और सत्यनेमि प्रभृति कुमार धन्य हैं जो हिरण्यादि देयभाग देकर, नेमिनाथ प्रभु के पास मुंडित यावत् प्रव्रजित हो गये हैं । मैं अधन्य हूं, अकृत- पुण्य हूं कि राज्य, अन्तःपुर और मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूर्च्छित हूं, इन्हें त्यागकर भगवान् नेमिनाथ के पास मुंडित होकर अनगार रूप प्रव्रजित होने में असमर्थ हूं ।
भगवान् नेमिनाथ प्रभु ने अपने ज्ञान-बल से कृष्ण वासुदेव के मनमें आये इन विचारों को जानकर आर्त्तध्यान में डूबे हुए कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा - "निश्चय ही हे कृष्ण ! तुम्हारे मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ-वे जालि, मयालि आदि धन्य है यावत् मैं प्रव्रज्या नहीं
सकता । कृष्ण ! क्या यह बात सही है ?" श्रीकृष्ण ने कहा- "हाँ भगवन् ! है ।" "तो हे कृष्ण ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव अपने भव में धन-धान्य-स्वर्ण आदि संपत्ति छोड़कर मुनिव्रत ले लें । वासुदेव दीक्षा लेते नहीं, ली नहीं एवं भविष्य में कभी लेंगे भी नहीं ।" श्रीकृष्ण ने कहा - "हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं ।" "हे कृष्ण ! निश्चय ही सभी वासुदेव पूर्व भव में निदानकृत होते हैं, इसलिये मैं ऐसा कहता हूं कि ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि वासुदेव कभी प्रव्रज्या अंगीकार करें ।”