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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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करती हं । जैसा आप कहते हैं वह वैसा ही है । आपका धर्मोपदेश यथार्थ है । हे भगवन ! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर फिर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हं । प्रभु ने कहा-'जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो । हे देवानुप्रियो ! धर्म-कार्य में विलम्ब मत करो ।' बाद पद्मावती देवी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ होकर द्वारका नगरी में अपने प्रासाद में आकर जहां पर कृष्ण वासुदेव थे वहां आकर अपने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाकर, मस्तक पर अंजलि कर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोली-'देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिहंत नेमिनाथ के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं।' कृष्ण ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो ।' तब कृष्ण वासुदेव ने अपने आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया देवानुप्रियो ! शीघ्र ही महारानी पद्मावती के दीक्षामहोत्सव की विशाल तैयारी करो, और तैयारी हो जाने की मुझे सूचना दो ।
तब आज्ञाकारी पुरुषों ने वैसा ही किया और दीक्षामहोत्सव की तैयारी की सूचना दी। इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने पद्मावती देवी को पट्ट पर बिठाया और एक सौ आठ सुवर्णकलशों से यावत निष्क्रमणाभिषेक से अभिषिक्त किया । फिर सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित करके हजार पुरुषों द्वारा उठायी जाने वाली शिविका में बिठाकर द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए निकले और जहां रैवतक पर्वत और सहस्राम्रवन उद्यान था उस ओर चले । वहां पहुँच कर पद्मावती देवी शिबिका से उतरी । तदनन्तर कृष्ण वासुदेव जहां अरिष्टनेमि भगवान् थे वहां आये, आकर भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया, इस प्रकार बोले"भगवन् ! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है । यह मेरे लिये इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और मन के अनुकूल चलने वाली है, अभिराम है । भगवन् ! यह मेरे जीवन में श्वासोच्छ्वास के समान है, मेरे हृदय को आनन्द देने वाली है । इस प्रकार का स्त्री-रत्न उदुम्बर के पुष्प के समान सुनने के लिये भी दुर्लभ है; तब देखने की तो बात ही क्या है ? हे देवानुप्रिय ! मैं ऐसी अपनी प्रिय पत्नी की भिक्षा शिष्या रूप में आपको देता हूं। आप उसे स्वीकार करें।" कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना सुनकर प्रभु बोले-'देवानुप्रिय ! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो ।'
तब उस पद्मावती देवी ने ईशान-कोण में जाकर स्वयं अपने हाथों से आभूषण एवं अलंकार उतारे, स्वयं ही अपने केशों का पंचमुष्टिक लोच किया । फिर भगवान् नेमिनाथ के पास आकर वन्दना की । इस प्रकार कहा-"भगवन् ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुख रूपी आग में जल रहा है । यावत् मुझे दीक्षा दें ।" इसके बाद भगवान् नेमिनाथ ने पद्मावती देवी को स्वयमेव प्रव्रज्या दी, और स्वयं ही यक्षिणी आर्या को शिष्या के रूप में प्रदान की। तब यक्षिणी आर्या ने पद्मावती को धर्मशिक्षा दी, यावत् इस प्रकार संयमपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए । तब वह पद्मावती आर्या ईर्यासमिति यावत् ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई । तदनन्तर उस पद्मावती आर्या ने यक्षिणी आर्या से सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, बहुत से उपवास-बेले-तेले-चोले-पचोले-मास और अर्धमास-खमण आदि विविध तपस्या से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी । इस तरह पद्मावती आर्या ने पूरे बीस वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन किया और अन्त में एक मास की संलेखना से आत्मा को भावित कर, साठ भक्त अनशन पूर्ण कर, जिस अर्थ-प्रयोजन के लिये नग्नभाव, (आदि धारण किए थे यावत्) उस