________________
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
२६
करने लगे ।
श्रमणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् गजसुकुमाल मुनि जिस दिन दीक्षित हुए, उसी दिन के पिछले भाग में जहाँ अरिहंत अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ आकर उन्होंने भगवान् नेमिनाथ की प्रदक्षिणा करके इस प्रकार बोले- 'भगवन् ! आपकी अनुज्ञा प्राप्त होने पर मैं महाकाल श्मशान में एक रात्रि की महापडिमा धारण कर विचरना चाहता हूँ ।' प्रभु ने कहा"हे देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख प्राप्त हो वही करो ।" तदनन्तर वह गजसुकुमाल मुनि अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा मिलने पर, भगवान् नेमिनाथ को वंदन नमस्कार करते हैं । अर्हत् अरिष्टनेमि के सान्निध्य से चलकर सहस्त्राम्रवन उद्यान से निकले । जहाँ महाकाल श्मशान था, वहाँ आते हैं । प्रासु स्थंडिल भूमि की प्रतिलेखना करते हैं । पश्चात् उच्चार-प्रस्त्रवण त्याग के योग्य भूमि का प्रतिलेखन करते | पश्चात् एक स्थान पर खड़े हो अपनी देह - यष्टि को किंचित् झुकाये हुए, यावत् दोनों पैरों को एकत्र करके एक रात्रि की महाप्रतिमा अंगीकार कर ध्यान में मग्न हो जाते हैं ।
इधर सोमिल ब्राह्मण समिधा लाने के लिये द्वारका नगरी के बाहर सुकुमाल अणगार के श्मशानभूमि में जाने से पूर्व ही निकला था । वह समिधा, दर्भ, कुश, डाभ एवं में पत्रामोडों को लेता है । उन्हें लेकर वहाँ से अपने घर की तरफ लौटता है । लौटते समय महाकाल श्मशान के निकट से जाते हुए संध्या काल की बेला में, जबकि मनुष्यों का गमनागमन नहीं के समान हो गया था, उसने गजसुकुमाल मुनि को वहाँ ध्यानस्थ खड़े देखा । उन्हें देखते ही सोमिल के हृदय में वैर भाव जागृत हुआ । वह क्रोध से तमतमा उठता है और मन ही मन इस प्रकार बोलता है-अरे! यह तो वही अप्रार्थनीय का प्रार्थी यावत् लज्जा परिवर्जित, गजसुकुमाल कुमार है, जो मेरी निर्दोष पुत्री सोमा कन्या को अकारण ही त्याग कर मुंडित हो यावत् श्रमण बन गया है ! इसलिये मुझे निश्चय ही गजसुकुमाल से इस वैर का बदला लेना चाहिये । इस प्रकार वह सोमिल सोचता है और सोचकर सब दिशाओं की ओर देखता है कि कहीं से कोई देख तो नहीं रहा है । इस विचार से चारों ओर देखता हुआ पास के ही तालाब से वह गीली मिट्टी लेता है, गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर पाल बाँधकर जलती हुई चिता में से फूले हुए किंशुक के फूल से समान लाल-लाल खेर के अंगारों को किसी खप्पर में लेकर उन दहकते हुए अंगारों को गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रख देता है । रखने के बाद इस भय से कि कही उसे कोई देख न ले, भयभीत होकर घबरा कर, त्रस्त होकर एवं उग्र होकर वह वहाँ से शीघ्रतापूर्वक पीछे की ओर हटता हुआ भागता है । वहाँ से भागता हुआ वह सोमिल जिस ओर से आया था उसी ओर चला जाता है ।
सिर पर उन जाज्वल्यमान अंगारों के रखे जाने से गजसुकुमाल मुनि के शरीर में महा भयंकर वेदना उत्पन्न हुई जो अत्यन्त दाहक दुःखपूर्ण यावत् दुस्सह थी । इतना होने पर भी गजसुकुमाल मुनि सोमिल ब्राह्मण पर मन से भी, लेश मात्र भी द्वेष नहीं करते हुए उस एकान्त दुःखरूप यावत् दुस्सह वेदना को समभावपूर्वक सहन करने लगे । उस समय उस एकान्त दुःखपूर्ण दुःसह दाहक वेदना को समभाव से सहन करते हुए शुभ परिणामों तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों के फलस्वरूप आत्मगुणों को आच्छादित करनेवाले कर्मों के क्षय से समस्त कर्मरज को झाड़कर साफ कर देने वाले, कर्म-विनाशक अपूर्ण करण में प्रविष्ट हुए । उन गजसुकुमाल