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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद संयम । छद्मस्थ क्षीण कषाय वीतराग संयम दो प्रकार का है, स्वयं-बुद्ध-छद्मस्थ-क्षीण-कषायवीतराग-संयम, बुद्ध-बोधित-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम । स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-संयम दो प्रकार गया है, प्रथम-समय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय-वीतरागसंयम, अप्रथम-समय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम । अथवा चरम-समयस्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम और अचरम-समय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय वीतराग-संयम ।
बुद्ध-बोधित-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम दो प्रकार का कहा गया है, यथाप्रथम-समय-बुद्ध-बोधित-छद्मस्थ-क्षीण-कषाय-वीतराग संयम और अप्रथम-समय-बुद्ध-बोधितछद्मस्थ-क्षीण-कषाय वीतराग-संयम । अछवा चरम-समय और अचरम-समय-बुद्ध-बोधितकेवली । क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम दो प्रकार का कहा गया है । यथा
सयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम, अयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतरागसंयम । सयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम दो प्रकार का है, प्रथम-समय और अप्रथम समय सयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम, अथवा चरम-समय और अचरम समय सयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम, ।
__ अयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम दो प्रकार का है, प्रथम-समय और अप्रथमसमय अयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग-संयम । अथवा चरम-समय-अयोगी-केवलीक्षीण-कषाय-वीतराग-संयम,अचरम-समय-अयोगी-केवली-क्षीण-कषाय-वीतराग- संयम |
[७३] पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये है, यथा- सूक्ष्म और बादर । इस प्रकार-यावत्-दो प्रकार के वनस्पतिकायिक जीव कहे गये हैं, यथा- सूक्ष्म और बादर ।
- पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकारयावत्-दो प्रकार के वनस्पतिकायिक जीव कहे गये है, यथा- पर्याप्त और अपर्याप्त । पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-परिणत और अपरिणत । इस प्रकार-यावत्-दो प्रकार के वनस्पतिकायिक जीव कहे गये हैं, यथा-परिणत और अपरिणत
द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा- परिणत और अपरिणत ।
पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा- गतिसमापन्नक, अगतिसमापनक (स्थित) । इस प्रकार-यावत्-वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-गतिसमापन्नक और अगति-समापन्नक ।
द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा- गति-समापनक और अगति-समापनक ।
पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-अनन्तरावगाढ और परम्परावगाढ । इस प्रकार-यावत्-द्रव्य दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा- अनन्तरावगाढ और परम्परावगाढ |
[७४] काल दो प्रकार का कहा गया हैं, यथा- अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी । आकाश दो प्रकार का हैं, यथा-लोकाकाश और अलोकाकाश ।
[७५] नैरयिक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं, यथा- आभ्यन्तर और बाह्य । कार्मण आभ्यन्तर है और वैक्रिय बाह्य शरीर है । देवताओं के शरीर भी इसी तरह कहने चाहिए ।
पृथ्वीकायिक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं, यथा- आभ्यन्तर और बाह्य । कार्मण आभ्यन्तर है और औदारिक बाह्य है । वनस्पतिकायिकजीव पर्यन्त ऐसा समझना चाहिए ।