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समवाय- १७/४२
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ऊंचा कहा गया है । असुरेन्द्र बलि का रुचकेन्द्रनामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है ।
मरण सत्तरह प्रकारका है । आवीचिमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण, वलन्मरण, वशार्तमरण, अन्तःशल्यमरण, तद्भवमरण, बालमरण, पंडितमरण, बालपंडितमरण, छद्मस्थमरण, केवलिमरण, वैहायसमरण, गृध्रस्पृष्ट या गृद्धपृष्ठमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण, पादपोपगमनमरण ।
सूक्ष्मसाम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसाम्पराय भगवान् केवल सत्तरह कर्म-प्रकृतियों को बाँधते हैं । जैसे— आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानवरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, सातावेदनीय, यशस्कीर्तिनामकर्म, उच्चगोत्र, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ।
सहस्त्रार कल्प में देवों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है । वहां जो देव, सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महामुकुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहबीज, और भावित नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम की होती है । वे देव साढ़े आठमासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं । उन देवों के सत्तरह हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्तरह भवग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ।
समवाय- १७ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
समवाय- १८
[४३] ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का है । औदारिक (शरीरवाले मनुष्य- तिर्यंचों के) कामभोगों को नहीं मन से स्वयं सेवन करता है, नहीं अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है । औदारिक- कामभोगों को नहीं वचन से स्वयं सेवन करता है, नहीं अन्य को वचन से सेवन कराता है और नहीं सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है । औदारिक- कामभोगों को नहीं स्वयं काय से सेवन करता है, नहीं अन्य को काय से सेवन कराता है और नहीं काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है । दिव्य काम-भोगों को नहीं स्वयं मन से सेवन करता है, नहीं अन्य को मन से सेवन कराता है और नहीं मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है । दिव्य काम भोगों को नहीं स्वयं वचन से सेवन करता है, नहीं अन्य को वचन से सेवन कराता हैं और नहीं सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है । दिव्य- कामभोगों को नहीं स्वयं काय से सेवन करता है, नहीं अन्य को काय से सेवन कराता है और नहीं काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है ।
अरिष्टनेमि अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी । श्रमण