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समवाय-प्र./२३२
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पद कहे गये हैं । संख्यात अक्षर हैं । अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस दृष्टिवाद में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तुस्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन
और उपदर्शन किया जाता है । यह बारहवां दृष्टिवाद अंग है । यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन है ।
[२३३] इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र रूप, अर्थरूप और उभय रूप आज्ञा का विराधन करके अर्थात् दुराग्रह के वशीभूत होकर अन्यथा सूत्रपाठ करके, अन्यथा अर्थकथन करके और अन्यथा सूत्रार्थ-उभय की प्ररूपणा करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार (गहन वन) में परिभ्रमण किया है, इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ
और उभय रूप आज्ञा का विराधन करके वर्तमान काल में परीत (परिमित) जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण कर रहे हैं और इसी द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का विराधन कर भविष्यकाल में अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तर में परिभ्रमण करेंगे ।
इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का आराधन करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गति रूप संसार-कान्तार को पार किया है (मुक्ति को प्राप्त किया है) । वर्तमान काल में भी (परिमित) जीव इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ
और उभय रूप आज्ञा का आराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी अनन्त जीव इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप आज्ञा का आराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार करेंगे ।
यह द्वादशाङ्ग गणि-पटिक भूतकाल में कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा, भी नहीं है । किन्तु भूतकाल में भी यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा । क्योंकि यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना देने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा-सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीपादि के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है ।
जिस प्रकार पांच अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में कभी नहीं थे, ऐसा नहीं, वर्तमान काल में कभी नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है और भविष्य काल में कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है । किन्तु ये पाँचों अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में भी थे, वर्तमानकाल में भी हैं और भविष्य काल में भी रहेंगे । अतएव ये ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं,
और नित्य हैं । इसी प्रकार यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूत काल में कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है । किन्तु भूतकाल में भी यह था, वर्तमान काल में भी यह है और भविष्य काल