Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 259
________________ २५८ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद जघन्य अवगाहना कुछ कम एक रत्नि (हाथ) और उत्कृष्ट अवगाहना परिपूर्ण एक रत्नि (हाथ) कही गई है । भगवन् ! तैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है-एकेन्द्रियतैजस शरीर, द्वीन्द्रियतैजसशरीर, त्रीन्द्रिय तैजसशरीर, चतुरिन्द्रितैजसशरीर और पंचेन्द्रियतैजसशरीर । इस प्रकार आरण- अच्युत कल्प तक जानना चाहिए । भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त हुए ग्रैवेयक देव की शरीर - अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? गौतम ! विष्कम्भ-बाहल्य की अपेक्षा शरीर - प्रमाणमात्र कही गई है और आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा नीचे जघन्य यावत् विद्याधर- श्रेणी तक उत्कृष्ट यावत् अधोलोक के ग्रामों तक, तथा ऊपर अपने विमानों तक और तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक कही गई है । इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देवों की जानना चाहिए । इसी प्रकार कार्मण शरीर का भी वर्णन कहना चाहिए । [२४७] भगवन् ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है - भवप्रत्यय अवधिज्ञान और क्षायोपशमिक अवधिज्ञान । इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र का सम्पूर्ण अवधिज्ञान पद कह लेना चाहिए । [२४८] वेदना के विषय में शीत, द्रव्य, शरीर, साता, दुःखा, आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी, निदा और अनिदा इतने द्वार ज्ञातव्य हैं । [२४९] भगवन् ! नारकी क्या शीत वेदना वेदन करते हैं, उष्णवेदना वेदन करते हैं, अथवा शीतोष्ण वेदना वेदन करते हैं ? गौतम ! नारकी शीत वेदना वेदन करते हैं यावत् इस प्रकार से वेदना पद कहना चाहिए । भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? गौतम ! लेश्याएं छह कही गई हैं । जैसेकृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । इस प्रकार श्यापद कहना चाहिए । [२५०] आहार के विषय में अनन्तर - आहारी, आभोग-आहारी, अनाभोग- आहारी, आहार - पुद्गलों के नहीं जानने-देखने वाले और जानने-देखने वाले आदि चतुर्भगी, प्रशस्तअप्रशस्त, अध्यवसान वाले और अप्रशस्त अध्यवसान वाले तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को प्राप्त जीव ज्ञातव्य हैं । [२५१] भंगवन् ! नारक अनन्तराहारी हैं ? ( उपपात क्षेत्र में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही क्या अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? ) तत्पश्चात् निर्वर्तनता ( शरीर की रचना) करते हैं ? तत्पश्चात् पर्यादानता ( अंग-प्रत्यंगों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण) करते हैं ? तत्पश्चात् परिणामनता (गृहीत पुद्गलों का शब्दादि विषय के रूप में उपभोग करते हैं ? तत्पश्चात् परिचारणा (प्रवीचार) करते हैं ? और तत्पश्चात् विकुर्वणा (नाना प्रकार की विक्रिया) करते हैं ? ( क्या यह सत्य है ?) हां गौतम ! ऐसा ही है । (यह कथन सत्य है ।) ( यहां पर प्रज्ञापना सूत्रोक्त) आहार पद कह लेना चाहिए । [२५२ ] भगवन् ! आयुकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम !

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