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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
चौबीस जिन-माताएं हैं ।
इन चौबीस तीर्थंकरों के पूर्वभव के चौबीस नाम थे । जैसे
[२७२] १. वज्रनाभ, २. विमल, ३. विमलवाहन, ४. धर्मसिंह, ५.. सुमित्र, ६. धर्ममित्र । तथा
[२७३] ७. सुन्दरबाहु, ८. दीर्घबाहु, ९. युगबाहु, १०. लष्ठबाहु, ११. दत्त, १२. इन्द्रदत्त, १३. सुन्दर, १४. माहेन्द्र तथा
[२७४] १५. सिंहस्थ, १६. मेघरथ, १७. रुक्मी, १८. सुदर्शन, १९. नन्दन, २०. सिंहगिरि ।
[२७५] २१. अदीनशत्रु, २२. शंख, २३. सुदर्शन और २४. नन्दन । ये इसी अवसर्पिणी के तीर्थंकरों के पूर्वभव के नाम जानना चाहिए ।
[२७६] इन चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस शिविकाएं (पालकियां) थीं । (जिन पर विराजमान होकर तीर्थंकर प्रव्रज्या के लिए वन में गए ।) जैसे
२७७] १. सुदर्शना शिविका, २. सुप्रभा, ३. सिद्धार्था, ४. सुप्रसिद्धा, ५. विजया, ६. वैजयन्ती, ७. जयन्ती, ८. अपराजिता । तथा
[२७८] अरुणप्रभा, १०. चन्द्रप्रभा, ११. सूर्यप्रभा, १२. अग्निप्रभा, १३. सुप्रभा, १४. विमला, १५. पंचवर्णा, १६. सागरदत्ता, १७. नागदत्ता । तथा
२७९] १८. अभयकरा, १९. निवृतिकरा, २०. मनोरमा, २१. मनोहरा, २२. देवकुरा, २३. उत्तरकुरा और २४. चन्द्रप्रभा ।।
[२८०] ये सभी शिबिकाएं विशाल थीं । सर्वजगत्-वत्सल सभी जिनवरेन्द्रों की ये शिबिकाएं सर्व ऋतुओं में सुखदायिनी उत्तम और शुभ कान्ति से युक्त होती हैं ।
[२८१] जिन-दीक्षा ग्रहण करने के लिए जाते समय तीर्थंकरों की इन शिबिकाओं को सबसे पहिले हर्ष से रोमाञ्चित मनुष्य अपने कन्धों पर उठाकर ले जाते हैं । पीछे असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उन शिबिकाओं को लेकर चलते हैं ।
[२८२] चंचल चपल कुण्डलों के धारक और अपनी इच्छानुसार विक्रियामय आभूषणों को धारण करनेवाले वे देवगण सुर-असुरों से वन्दित जिनेन्द्रों की शिबिकाओं वहन करते हैं ।
[२८३] इन शिबिकाओं को पूर्व की ओर (वैमानिक] देव, दक्षिण पार्श्व में नागकुमार, पश्चिम पार्श्व में असुरकुमार और उत्तर पार्श्व में गरुखकुमार देव वहन करते हैं ।
[२८४] ऋषभदेव विनीता नगरी से, अरिष्टनेमि द्वारावती से और शेष सर्व तीर्थंकर अपनी-अपनी जन्मभूमियों से दीक्षा-ग्रहण करने के लिए निकले थे ।
[२८५] सभी चौबीसों जिनवर एक दूष्य (इन्द्र-समर्पित दिव्य वस्त्र) से दीक्षा-ग्रहण करने के लिए निकले थे । न कोई अन्य पाखंडी लिंग से दीक्षित हुआ, न गृहिलिंग से और न कुलिंग से दीक्षित हुआ । (किन्तु सभी जिन-लिंग से ही दीक्षित हुए थे ।)
[२८६] दीक्षा ग्रहण करने के लिए भगवान् महावीर अकेले ही घर से निकले थे । पार्श्वनाथ और मल्ली जिन तीन-तीन सौ पुरुषों के साथ निकले । तथा भगवान् वासुपूज्य छह सौ पुरुषों के साथ निकले थे ।