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समवाय-७२/१५०
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२५. मधुसिक्थ, २६. आभरणविधि, २७. तरुणीप्रतिकर्म, २८. स्त्रीलक्षण, २९. पुरुषलक्षण, ३०. अश्वलक्षण, ३१. गजलक्षण, ३२. बलोकेलक्षण, ३३. कुर्कुटलक्षण, ३४. मेढलक्षण, ३५. चक्रलक्षण, ३६. छत्रलक्षण, ३७. दंडलक्षण, ३८. असिलक्षण, ३९. मणिलक्षण, ४०. काकणीलक्षण, ४१. चर्मलक्षण, ४२. चन्द्रचर्या, ४३. सूर्यचर्या, ४४. राहुचर्या, ४५. ग्रहचर्या, ४६. सौभाग्यकर, ४७. दौर्भाग्यकर, ४८. विद्यागत ।
४९. मन्त्रगत, ५०. रहस्यगत, ५१. सभास, ५२. चारकला, ५३. प्रतिचारकला, ५४. व्यूहकला, ५५. प्रतिव्यूहकला, ५६. स्कन्धावारमान, ५७. नगरमान, ५८. वास्तुमान, ५९. स्कन्धावारनिवेश, ६०. वस्तुनिवेश, ६१. नगरनिवेश, ६२. बाण चलाने की कला, ६३. तलवार की मूठ आदि बनाना, ६४. अश्वशिक्षा, ६५. हस्तिशिक्षा, ६६. धनुर्वेद, ६७. हिरण्यपाक, ६८. बाहुयुद्ध, दंडयुद्ध, मुष्टि युद्ध, यष्टियुद्ध, सामान्य युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध आदि युद्धो का जानना, ६९. सूत्रखेड, नालिकाखेड, वर्तखेड, धर्मखेड, चर्मखेड आदि खेलों का जानना, ७०. पत्रच्छेद्य, कटकछेद्य, ७१. संजीवनी विद्या, ७२. पक्षियो की बोली जानना ।
सम्मूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की कही गई है ।
(समवाय-७३) [१५१] हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवाएं तेहत्तर-तेहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से साढ़े सत्तरह भाग प्रमाण लम्बी कही गई है ।।
विजय बलदेव तेहत्तर लाख वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए ।
(समवाय-७४) [१५२] स्थविर अग्निभूति गणधर चौहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए ।
निषध वर्षधर पर्वत के तिगिंछ द्रह से सीतोदा महानदी कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन उत्तराभिमुखी बह कर महान् घटमुख से प्रवेश कर वज्रमयी, चार योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी जिह्विका से निकल कर मुक्तावलिहार के आकारवाले प्रवाह से भारी शब्द के साथ वज्रतल वाले कुंड में गिरती है । इसी प्रकार सीता नदी भी नीलवन्त वर्षधर पर्वत के केशरी द्रह से कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन दक्षिणाभिमुखी बह कर महान् घटमुख से प्रवेश कर वज्रमयी चार योजन लम्बी पचास योजन चौड़ी जिहिका से निकल कर मुक्तावलि हार के आकारवाले प्रवाह से भारी शब्द के साथ वज्रतल वाले कुंड में गिरती है । चौथी को छोड़कर शेष छह पृथ्वीयों में चौदत्तर लाख नारकावास कहे गये हैं ।
(समवाय-७५) [१५३] सुविधि पुष्पदन्त अर्हन के संघ में पचहत्तर सौ केवलिजिन थे ।
शीतल अर्हन् पचहत्तर हजार पूर्व वर्ष अगारवास में रह कर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए ।