Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 227
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ उनहत्तर हैं । समवाय-७० [१४८] श्रमण भगवान् महावीर चतुर्मास प्रमाण वर्षाकाल के बीस दिन अधिक एक मास ( पचास दिन) व्यतीत हो जाने पर और सत्तर दिनों के शेष रहने पर वर्षावास करते थे । पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् परिपूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमण- पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्वदुःखों से रहित हुए । वासुपूज्य अर्हत् सत्तर धनुष ऊंचे थे । मोहनीय कर्म की अबाधाकाल से रहित सत्तर कोड़ा - कोड़ी सागरोपम - प्रमाण कर्मस्थिति और कर्म निषेक कहे गये हैं । देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सामानिक देव सत्तर हजार कहे गये हैं । समवाय - ७० का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण २२६ समवाय-७१ [१४९] [पंच सांवत्सरिक युग के] चतुर्थ चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात्रि-दिन व्यतीत होने पर सूर्य सबसे बाहरी मंडल (चार क्षेत्र) से आवृत्ति करता है । अर्थात् दक्षिणायन से उत्तरायण की और गमन करना प्रारम्भ करता है । वीर्यप्रवाद पूर्व के इकहत्तर प्राभृत (अधिकार) कहे गये हैं । अजित अर्हन् इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रहकर मुंडित हो अगार के अनगारिता में प्रव्रजित हुए । इसी प्रकार चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रह कर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए । समवाय-७२ [१५०] सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गये हैं । लवण समुद्र की बाहरी वेला तो बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं । श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो कर सर्व दुःखों से रहित हुए । आभ्यन्तर पुष्करार्ध द्वीप में बहत्तर चन्द्र प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और आगे प्रकाश करेंगे । इसी प्रकार बहत्तर सूर्य तपते थे, तपते हैं और आगे तपेंगे । प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के बहत्तर हजार उत्तम पुर (नगर) कहे गये हैं । बहत्तर कलाएं कही गई हैं । जैसे १. लेखकला, २. गणितकला, ३. रूपकला, ४. नाट्यकला, ५. गीतकला, ६ . वाद्यकला, ७. स्वरगतकला, ८. पुष्करगतकला, ९. समतालकला, १०. द्युतकला, ११. जनवादकला, १२. सुरक्षाविज्ञान, १३. अष्टापदकला, १४. दकमृत्तिकाकला, १५. अन्नविधिकला, १६. पानविधिकला, १७. वस्त्रविधिकला, १८. शयनविधि, १९. आर्याविधि, २०. प्रहेलिका, २१. मागधिका, २२. गाथाकला, २३. श्लोककला, २४. गन्धयुति ।

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