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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[२०७] लवणसमुद्र के पूर्वी चरमान्त भाग से पश्चिमी चरमान्त भाग का अन्तर पाँच लाख योजन है ।
[२०८] चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा साठ लाख पूर्व वर्ष राजपद पर आसीन रह कर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए ।
[२०९] इस जम्बूद्वीप की पूर्वी वेदिका के अन्त से धातकीखण्ड के चक्रवाल विष्कम्भ का पश्चिमी चरमान्त भाग सात लाख योजन के अन्तरवाला है ।
[२१०] माहेन्द्र कल्प में आठ लाख विमानावास कहे गये हैं ।
२११] अजित अर्हन के संघ में कुछ अधिकः नौ हजार अवधि ज्ञानी थे । [सूत्र २०१में देखीए यह सूत्र वहां होना चाहिए ।]
[२१२] पुरुषसिंह वासुदेव दशलाख वर्ष की कुल आयु को भोग कर पाँचवीं नारकपृथ्वी में नारक रूप से उत्पन्न हुए ।
[२१३] श्रमण भगवान् महावीर तीर्थंकर भव ग्रहण करने से पूर्व छठे पोट्टिल के भव में एक कोटि वर्ष श्रमण-पर्याय पाल कर सहस्त्रार कल्प में सर्वार्थविमान में देवरूप से उत्पन्न हुए थे।
२१४] भगवान् श्री कृषभदेव का और अन्तिम भगवान् महावीर वर्धमान का अन्तर एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम कहा गया है ।
[२१५] गणिपिटक द्वादश अंग स्वरुप है । वे अंग इस प्रकार है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ।
___ यह आचारांग क्या है ? इसमें क्या वर्णन क्या किया गया है ? आचारांग मैं श्रमण निर्गन्थो के आचार, गौचरी, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योगयोजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त, पान, उद्गम, उत्पादन, एषणाविशुद्धि, शुद्धग्रहण, अशुद्धग्रहण, व्रत, नियम, तप और उपधान इनका सुप्रशस्त रुपसे कथन किया गया है ।
आचार संक्षेप से पाँच प्रकार का है | ज्ञानाचार, दर्शनाचार चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । इस आचार का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र भी आचार कहलाता है । आचारांग की परिमित सूत्रार्थप्रदान रूप वाचनाएं हैं, संख्यात उपक्रम आदि अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं, और संख्यात नियुक्तियाँ हैं ।
गणि-पिटक के द्वादशाङ्ग में अंगकी अपेक्षा ‘आचार' प्रथम अंग है । इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं, पचासी उद्देशन-काल हैं, पचासी उद्देशन-काल हैं, पचासी समद्देशन-काल हैं । पद-गणना की अपेक्षा इसमें अटठारह हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, अतः उनके जानने रूप ज्ञान के द्वार भी अनन्त ही होते हैं । पर्याय भी अनन्त हैं, क्योंकि वस्तु के धर्म अनन्त हैं । त्रस जीव परीत (सीमित) हैं । स्थावर जीव अनन्त हैं । सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कृत (अनित्य) हैं, सर्व पदार्थ सूत्रों में निबद्ध (ग्रथित) हैं और निकाचित हैं अर्थात् नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि से प्रतिष्ठित हैं । इस आचाराङ्ग में जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रज्ञप्त भाव सामान्य रूप से कहे जाते हैं, विशेष रूप से