________________
समवाय-प्र./२२२
२४३
अनुपम सुखों को और दिव्य, महामूल्य, उत्तम भोग-उपभोगों को चिर-काल तक भोग कर कालक्रम के अनुसार वहाँ से च्युत हो पुनः यथायोग्य मुक्ति के मार्ग को प्राप्त कर अन्तक्रिया से समाधिमरण के समय कर्म-वश विचलित हो गये हैं, उनको देवों और मनुष्यों के द्वारा धैर्य धारण कराने में कारणभूत, संबोधनों और अनुशासनों को, संयम के गुण और संयम से पतित होने के दोष-दर्शक दृष्टान्तों को, तथा प्रत्ययों को, अर्थात् बोधि के कारणभूत वाक्यों को सुनकर शुकपब्रिाजक आदि लौकिक मुनि जन भी जरा-मरण का नाश करने वाले जिन-शासन में जिस प्रकार से स्थित हुए, उन्होंने जिस प्रकार से संयम की आराधना की, पुनः देवलोक में उत्पन्न हए, वहाँ से आकर मनुष्य हो जिस प्रकार शाश्वत सुख को और सर्वदुःख-विमोक्ष को प्राप्त किया, उनकी, तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक महापुरुषों की कथाएं इस अंग में विस्तार से कही गई हैं ।
____ ज्ञाताधर्मकथा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं ।
यह ज्ञाताधर्मकथा अंगरूप से छठा अंग है । इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं और उन्नीस अध्ययन हैं । वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं-चरित और कल्पित । ।
धर्मकथाओं के दश वर्ग हैं । उनमें से एक-एक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं, एक-एक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उपाख्यायिकाएं हैं, एक-एक उपाख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं । इस प्रकार ये सब पूर्वापर से गुणित होकर एक सौ इक्कीस करोड़, पचास लाख होती हैं । धर्मकथा विभाग के दश वर्ग कहे गये हैं । अतः उक्त राशि को दश से गुणित करने पर एक सौ पच्चीस करोड़ संख्या होती है | उसमें समान लक्षणवाली पुनरुक्त कथाओं को घटा देने पर साढ़े तीन करोड़ अपुनरुक्त कथाएं हैं ।
ज्ञाताधर्मकथा में उनतीस उद्देशन काल हैं, उनतीस समुद्देशन-काल हैं, पद-गणनाःकी अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस ज्ञाताधर्मकथा में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, निदर्शित किये गए हैं, और उपर्शित किये गए हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा (कथाओं के माध्यम से) वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह छठे ज्ञाताधर्मकथा अंग का परिचय है ।
[२२३] उपासकदशा क्या है-उसमें क्या वर्णन है ?
उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, उपासकों के शीलव्रत, पाप-विरमण, गुण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास-प्रतिपत्ति, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, ग्यारह प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, सुकुल-प्रत्यागमन, पुनःबोधिलाभ, और अन्तक्रिया का कथन किया गया है, प्ररूपणा की गई है, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है ।
उपासकदशांग में उपासकों (श्रावकों) की वृद्धि-विशेष, परिषद् (परिवार), विस्तृत धर्म-श्रवण, बोधिलाभ, धर्माचार्य के समीप अभिगमन, सम्यक्त्व की विशुद्धता, व्रत की