Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 249
________________ २४८ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद हैं । अनेक भव-परम्परा में बंधे हुए पापी जीव पाप कर्मरूपी वल्ली के दुःख-रूप फलों को भोगे विना नहीं छूटते हैं । क्योंकि कर्मों के फलों को भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं मिलता । हाँ, चित्त-समाधिरूप धैर्य के साथ जिन्होंने अपनी कमर कस ली है उनके तप द्वारा उन पापकर्मों का भी शोधन हो जाता है अब सुख-विपाकों का वर्णन किया जाता है- जो शील, (ब्रह्मचर्य या समाधि) संयम, नियम ( अभिग्रह - विशेष ), गुण (मूल गुण और उत्तर गुण) और तप ( अन्तरंग - बहिरंग) के अनुष्ठान में संलग्न हैं, जो अपने आचार का भली भांति से पालन करते हैं, ऐसे साधुजनों में अनेक प्रकार की अनुकम्पा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति तीनों ही कालों में विशुद्ध बुद्धि रखते हैं अर्थात् यतिजनों को आहार दूंगा, यह विचार करके जो हर्षानुभव करते हैं, देते समय और देने के पश्चात् भी हर्ष मानते हैं, उनको अति सावधान मन से हितकारक, सुखकारक, निःश्रेयसकारक उत्तम शुभ परिणामों से प्रयोग-शुद्ध ( उद्गमादि दोषों से रहित ) भक्त - पान देते हैं, वे मनुष्य जिस प्रकार पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं, बोधि-लाभ को प्राप्त होते हैं और नर, नारक, तिर्यंच एवं देवगति - गमन सम्बन्धी अनेक परावर्त्तनों को परीत ( सीमित - अल्प ) करते हैं, तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्वरूप शैल (पर्वत) से संकट (संकीर्ण) है, गहन अज्ञान - अन्धकार रूप कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसका पाउ कठिन है, जिसका चक्रवाल (जल-परिमंडल) जरा, मरण योनिरूप मगरमच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायरूप श्वापदों (खूंखार हिंसक प्राणियों) से अति प्रचण्ड अतएव भयंकर है । ऐसे अनादि अनन्त इस संसार सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं, और जिस प्रकार देव-गणों में आयु बांधते देवायु का बंध करते हैं, तथा जिस प्रकार सुर-गणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं, तत्पश्चात् कालान्तर में वहाँ से च्युत होकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, जाति कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेधा - विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन, स्वजन, धन, धान्य और वैभव से समृद्ध, एवं सारभूत सुखसम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के काम-भोग - जनित, सुख-विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अनुपरत (अविच्छिन्न) परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते हैं, ऐसे पुण्यशाली जीवों का इस सुख-विपाक में वर्णन किया गया है । इस प्रकार अशुभ और शुभ कर्मों के बहुत प्रकार के विपाक (फल) इस विपाकसूत्र में भगवान् जिनेन्द्र देव ने संसारी जनों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं । इसी प्रकार से अन्य भी बहुत प्रकार की अर्थ- प्ररूपणा विस्तार से इस अंग में की गई है । विपाकसूत्र की परत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोग द्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं, और संख्यात संग्रहणियाँ हैं । यह विपाकसूत्र अंगरूप से ग्यारहवां अंग है । बीस अध्ययन हैं, बीस उद्देशन - काल हैं, बीस समुद्देशन - काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं । संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं । इसमें शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता

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