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समवाय-९३/१७२
दक्षिणायन से उत्तरायण को जाते हुए, अथवा उत्तरायण से दक्षिणायन को लौटते हुए तेरानवे मण्डल पर परिभ्रमण करता हुआ सूर्य सम अहोरात्र को विषम करता है ।
(समवाय-९४) [१७३] निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वतों की जीवाएं चौरानवै हजार एक सौ छप्पन योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग प्रमाण लम्बी कही गई है ।
अजित अर्हत् के संघ में ९४०० अवधिज्ञानी थे ।
(समवाय-९५)
[१७४] सुपार्श्व अर्हत् के पंचानवे गण और पंचानवै गणधर थे ।
इस जम्बूद्वीप के चरमान्त भाग से चारों दिशाओं में लवण समुद्र के भीतर पंचानवैपंचानवै हजार योजन अवगाहन करने पर चार महापाताल हैं । जैसे- १. वड़वामुख, २. केतुक, ३. यूपक और ४. ईश्वर । लवण समुद्र के उभय पार्श्व पंचानवे-पंचानवे प्रदेश पर उद्धेध (गहराई) और उत्सेध (ऊंचाई) वाले कहे गये हैं ।
कुन्थु अर्हत् पंचानवै हजार वर्ष की परमायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए । स्थविर मौर्यपुत्र पंचानवै वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए ।
(समवाय-९६) [१७५] प्रत्येक चातुरन्तचक्रवर्ती राजा के छयानवै-छयानवै करोड़ ग्राम थे । वायुकुमार देवों के छयानवै लाख आवास (भवन) कहे गये हैं ।
व्यावहारिक दण्ड अंगुल के माप से छयानवै अंगुल-प्रमाण होता है । इसी प्रकार धनुष, नालिका, युग, अक्ष और मूशल भी जानना चाहिए ।
आभ्यन्तर मण्डल पर सूर्य के संचार करते समय आदि (प्रथम) मुहूर्त छयानवै अंगुल की छाया वाला कहा गया है ।
(समवाय-९७) [१७६] मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से गोस्तुभ आवास-पर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग सत्तानवै हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है । इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए ।
आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां सत्तानवै कही गई हैं ।
चातुरन्तचक्रवर्ती हरिषेण राजा कुछ कम ९७०० वर्ष अगार-वास में रहकर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए ।
समवाय-९८ [१७७] नन्दनवन के ऊपरी चरमान्त भाग से पांडुक वन के निचले चरमान्त भाग का अन्तर अट्ठानवे हजार योजन है ।