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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
गणना से कुछ विशेष हीन इकत्तीस रात-दिन का कहा गया है ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम है । अधस्तन सातवीं पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति इकत्तीस सागरोपम की है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम की है ।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम है । विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरोपम है । जो देव उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकत्तीस सागरोपम है । वे देव साढ़े पन्द्रह मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं । उन देवों के इकत्तीस हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इकत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय-३१ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
(समवाय-३२ [१०२] बत्तीस योग-संग्रह (मोक्ष-साधक मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार) हैं । इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारु रूप से सम्पन्न होती है । वे योग इस प्रकार है
[१०३] आलोचना- व्रत-शुद्धि के लिए शिष्य अपने दोषों की गुरु के आगे आलोचना करे ।
निरपलाप-शिष्य-कथित दोषों को आचार्य किसी के आगे न कहे । आपत्सु दृढधर्मता-आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म से दृढ रहे । अनिश्रितोपधान-दूसरे के आश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करे । शिक्षा-सूत्र और अर्थ का पठन-पाठन एवं अभ्यास करे । निष्प्रतिकर्मता—शरीरकी सजावट-श्रृंगारादि न करे ।।
[१०४] अज्ञातता—यश, ख्याति, पूजादि के लिए अपने तप को प्रकट न करे, अज्ञात रखे ।
अलोभता-भक्त-पान एवं वस्त्र, पा६ आदि में निर्लोभ प्रवृत्ति रखे । तितिक्षा-भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन कर । आर्जव-अपने व्यवहार को निश्छल और सरस रखे । शुचि-सत्य बोलने और संयम-पालने में शुद्धि रखे । सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन को शंका-कांक्षादि दोषों को दूर करते हुए शुद्ध रखे । समाधि-चित्त को संकल्प-विकल्पों से रहित शान्त रखे ।
आचारोपगत-अपने आचरण को मायाचार रहित रखे । विनयोपगत-विनय-युक्त रहे, अभिमान न करे । [१०५] धृतिमति-अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे । संवेग-संसार से भय-भीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे । प्रणिधि-हृदय में माया शल्य न रखे ।