Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 212
________________ समवाय-३०/९९ यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए । एक-एक अहोरात्र (दिन-रात ) मुहूर्त - गणना की अपेक्षा तीस मुहूर्त का कहा गया है । इन तीस मुहूर्तों के तीस नाम हैं । जैसे— रौद्र, शक्त, मित्र, वायु, सुपीत, अभिचन्द्र, माहेन्द्र, प्रलम्ब, ब्रह्म, सत्य, आनन्द, विजय, विश्वसेन, प्राजापत्य, उपशम, ईशान, तष्ट, भावितात्मा, वैश्रवण, वरुण, शतऋषभ, गन्धर्व, अग्नि वैशायन, आतप, आवर्त, तष्टवान, भूमह (महान), ऋषभ, सर्वार्थसिद्ध और राक्षस अठारहवें अर अर्हन् तीस सहस्त्रार देवेन्द्र देवराज के पार्श्व अर्हन् तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए I श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए I रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नारकावास है । इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तीस पल्योपम है । अधस्तन सातवीं पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीस सागरोपम है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीस पल्योपम है । उपरम - उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम कही कई है । जो देव उपरममध्यम ग्रैवेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम है । वे देव पन्द्रह मासों के बाद आन-प्राण और उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं । उन देवों के तीस हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय - ३० का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण धनुष ऊंचे थे । तीस हजार सामानिक देव कहे गये हैं । २११ समवाय- ३१ I [१०० ] सिद्धों के आदि गुण अर्थात् सिद्धत्व पर्याय प्राप्त करने के प्रथम समय में होने वाले गुण इकतीस कहे गये हैं । जैसे— क्षीण आभिनिबोधिकज्ञानावरण, क्षीणश्रु तज्ञानावरण, क्षीण अवधिज्ञानावरण, क्षीणमनः पर्यवज्ञानावरण, क्षीणकेवलज्ञानावरण, क्षीणचक्षुदर्शनावरण, क्षीण अचक्षुदर्शनावरण, क्षीण अवधिदर्शनावरण, क्षीण केवलदर्शनावरण, क्षीण निद्रा, क्षीण निद्रानिद्रा, क्षीण प्रचला, क्षीण प्रचलाप्रचला, क्षीणस्त्यानर्द्धि, क्षीण सातावेदनीय, क्षीण असातावेदनीय, क्षीण दर्शनमोहनीय, क्षीण चारित्रमोहनीय, क्षीण नरकायु, क्षीण तिर्यगायु, क्षीण मनुष्यायु, क्षीण देवायु, क्षीण उच्चगोत्र, क्षीण नीचगोत्र, क्षीण शुभनाम, क्षीण अशुभनाम, क्षीण दानान्तराय, क्षीण लाभान्तराय, क्षीणभोगान्तराय, क्षीण उपभोगान्तराय और क्षीण वीर्यान्तराय । [१०१] मन्दर पर्वत धरणी- तल पर परिक्षेप (परिधि) की अपेक्षा कुछ कम इकत्तीस हजार छह सौ तेईस योजन कहा गया है । जब सूर्य सब से बाहरी मंडल में जाकर संचार करता है, तब इस भरत क्षेत्र - गत मनुष्य को इकत्तीस हजार आठ सौ इकत्तीस और एक योजन के साठ भागों में से तीस भाग की दूरी से वह सूर्य दृष्टिगोचर होता है । अभिवर्धित मास में रात्रिदिवस की गणना से कुछ अधिक इकत्तीस रात-दिन कहे गये हैं । सूर्यमास रात्रि - दिवस की

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