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समवाय-५७/१३५
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गोस्तुभ आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त से वड़वामुख महापाताल के बहु मध्य देशभाग का विना किसी बाधा के सत्तावन हजार योजन अन्तर कहा गया है । इसी प्रकार दकभास और केतुक का, संख और यूपक का और दकसीम तथा ईश्वर नामक महापाताल का अन्तर जानना चाहिये ।
मल्लि अर्हत् के संघ में सत्तावन सौ मनःपर्यवज्ञानी मुनि थे ।
महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत की जीवाओं का धनुःपृष्ठ सत्तावन हजार दो सौ तेरानवे योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दशभाग प्रमाण परिक्षेप (परिधि) रूप से कहा गया है ।
(समवाय-५८) [१३६] पहली, दूसरी और पाँचवी इन तीन पृथ्वीयों में अट्ठावन लाख नारकावास कहे गये हैं ।
ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम और अन्तराय इन पाँच कर्मप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठावन कही गई हैं ।।
गोस्तूभ आवासपर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से वड़वामुख महापाताल के बहमध्य देश-भाग का अन्तर अट्ठावन हजार योजन विना किसी बाधा के कहा गया है । इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिये ।
(समवाय-५९) [१३७] चन्द्रसंवत्सर (चन्द्रमा की गति की अपेक्षा से माने जाने वाले संवत्सर) की एक एक ऋतु रात-दिन की गणना से उनसठ रात्रि-दिन की कही गई है ।
संभव अर्हन् उनसठ हजार पूर्व वर्ष अगार के मध्य (गृहस्थावस्था में) रहकर मुंडित हो अगार त्याग कर अनगारिता में प्रव्रजित हुए । मल्लि अर्हन् के संघ में उनसठ सौ (५९००) अवधिज्ञानी थे ।
(समवाय-६०) [१३८] सूर्य एक एक मण्डल को साठ-साठ मुहर्मों से पूर्ण करता है ।
लवणसमुद्र के अग्रोदक (सोलह हजार ऊंची वेला के ऊपर वाले जल) को साठ हजार नागराज धारण करते हैं ।
विमल अर्हन् साठ धनुष ऊंचे थे ।
बलि वैरोचनेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं । ब्रह्म देवेन्द्र देवराज के साठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं । सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में साठ लाख विमानावास कहे गये हैं । समवाय-६० का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(समवाय-६१) [१३९] पंचसंवत्सर वाले युग के ऋतु-मासों से गिनने पर इकसठ ऋतु मास होते हैं ।