Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 216
________________ समवाय-३३/१०९ २१५ (२९) शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या-संस्तारक को पैर से ठुकरावे । (३०) शैक्ष यदि रानिक साधु के शय्या या आसन पर खड़ा होता, बैठता-सोता है । (३१) शैक्ष यदि रात्निक साधु से ऊंचे आसन पर बैठे । (३२) शैक्ष यदि रानिक साधु के समान आसन पर बैठे । (३३) रात्निक के कुछ कहने पर शैक्ष अपने आसन पर बैठा-बैठा उत्तर दे । असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा नगरी में प्रत्येक द्वार के बाहर तेतीसतेतीस भौम (नगर के आकार वाले विशिष्ट स्थान) कहे गये हैं । महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) कुछ अधिक तेतीस हजार योजन विस्तार वाला है । जब सूर्य सर्वबाह्य मंडल से भीतर की ओर तीसरे मंडल पर आकर संचार करता है, तब वह इस भरत क्षेत्र-गत मनुष्य के कुछ विशेष कम तेतीस हजार योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है । इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है । अधस्तन सातवीं पृथ्वी के काल, महाकाल, रौरुक और महारौरुक नारकावासों के नारकों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम कही गई है । उसी सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरक में नारकों की अजधन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम स्थिति कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है । सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम है । विजय-वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है । जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक पाँचवें अनुत्तर महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति पूरे तेतीस सागरोपम कही गई है । वे देव तेतीस अर्धमासों के बाद आन-प्राण अथवा उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव तेतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । ___ यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देव तो नियम से एक भव ग्रहण करके मुक्त होते हैं और विजयादि शेष चार विमानों के देवों में से कोई एक भव ग्रहण करके मुक्त होता है और कोई दो मनुष्यभव ग्रहण करके मुक्त होता है । समवाय-३३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (समवाय-३४) [११०] बुद्धों के अर्थात् तीर्थंकर भगवन्तों के चौतीस अतिशय कहे गये हैं । जैसे १. नख और केश आदि का नहीं बढ़ना । २. रोगादि से रहित, मल रहित निर्मल देह-लता होना । ३. रक्त और मांस का गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण होना । ४. पद्मकमल के समान सुगन्धित उच्छ्वास निःश्वास होना । ५. मांस-चक्षु से अदृश्य प्रच्छन्न आहार और नीहार होना । ६. आकाश में धर्मचक्र का चलना । ७. आकाश में तीन छत्रों का घूमते हुए रहना । ८. आकाश में उत्तम श्वेत चामरों का ढोला जाना । ९. आकाश के समान निर्मल स्फटिकमय पादपीठयुक्त सिंहासन का होना । १०. आकाश में हजार लघु पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का आगे-आगे चलना ।

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