Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 208
________________ समवाय- २८/६२ ध्राणेन्द्रिय धारणा, जिह्वेन्द्रिय धारणा, स्पर्शनेन्द्रिय धारणा और नोइन्द्रिय धारणा । ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमानावास कहे गये हैं । देवगति को बांधने वाला जीव नामकर्म की अट्ठाईस उत्तरप्रकृतियों को बांधता है । वे इस प्रकार हैं- देवगतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वैक्रियकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मरगशरीरनाम, समचतुरस्त्रसंस्थाननाम, वैक्रियकशरीराङ्गोपाङ्गनाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसना, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, उच्छ्वासनाम, प्रशस्त विहायोगतिनाम, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिर - अस्थिर नामों में से कोई एक, शुभ -अशुभनामों में से कोई एक, आदेय - अनादेय नामो में से कोई एक, सुभगनाम, सुस्वरनाम, यशस्कीर्त्तिनाम और निर्माण नाम । इसी प्रकार नरकगति को बांधनेवाला जीव भी नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है । किन्तु वह प्रशस्त प्रकृतियों के स्थान पर अप्रशस्त प्रकृतियों को बांधता है । जैसे—अप्रशस्त विहायोगतिनाम, हुंडकसंस्थाननाम, अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वस्नाम, अनादेयनाम अयसस्कीर्त्तिनाम और निर्माणनाम | इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है । अधस्तन सातवीं पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति अट्ठाईस सागरोपम कही गई है । कितनेक असुरकुमारों की स्थिति अट्टाईस पल्योपम कही गई है । सौधर्म - ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम है । २०७ उपरितन - अधस्तन ग्रैवेयक विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम है । जो देव मध्यम - उपरिम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम है । वे देव चौदह मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं । उन देवों को अट्ठाईस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अट्ठाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय- २८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण समवाय- २९ [ ६३ ] पापश्रुतप्रसंग- पापों के उपार्जन करनेवाले शास्त्रों का श्रवण सेवन उनतीस प्रकार का है । जैसे- भौमश्रुत, उत्पातश्रुत, स्वप्नश्रुत, अन्तरिक्षश्रुत, अंगश्रुत, स्वरश्रुत, व्यंजनश्रुत, लक्षणश्रुत । भौम श्रुत तीन प्रकार का है, जैसे-सूत्र, वृत्ति और वार्तिक । इन तीन भेद उपर्युक्त भौम, उत्पात आदि आठों प्रकार के श्रुत के चौबीस भेद होते है । विकथानुयोगश्रुत, विद्यानुयोगश्रुत, मंत्रानुयोगश्रुत, योगानुयोगश्रुत और अन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग । आषाढ़ मास रात्रि - दिन की गणना की अपेक्षा उनतीस रात-दिन का कहा गया है । [इसी प्रकार ] भाद्रपदमास, कार्त्तिक मास, पौषमास, फाल्गुणमास, और वैशाखमास भी उनतीसउनतीस रात-दिन के कहे गये हैं । चन्द्र दिन मुहूर्त गणना की अपेक्षा कुछ अधिक उनतीस मुहूर्त का कहा गया है । प्रशस्त अध्यवसान (परिणाम) से युक्त सम्यग्दृष्टि भव्य जीव तीर्थकरनाम सहित नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों को बांधकर नियम से वैमानिक देवों में देवरूप से उत्पन्न होता है ।

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