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स्थान - १०/-/९२७
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आलोचना न करे अतः यह दृष्ट दोष है । स्थूल दोष की आलोचना करे-अपने बड़े दोष की आलोचना इस आशय से करे कि यह कितना सत्यवादी हैं ऐसी प्रतीति कराने के लिये बड़े दोष की आलोचना करे ।
सूक्ष्म दोष की आलोचना करे यह छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करता है तो बड़े दोषों की आलोचना करने में तो सन्देह ही क्या है ऐसी प्रतीति कराने के लिए सूक्ष्म दोषों की आलोचना करे । प्रच्छन्न रूप से आलोचना करे- आचार्याद सुन न सके ऐसे धीमे स्वर से आलोचना करे अतः आलोचना नहीं करी ऐसा कोई न कह सके । उच्च स्वर से आलोचना करे - केवल गीतार्थ ही सुन सके ऐसे स्वर से आलोचना करनी चाहिये किन्तु उच्च स्वर से बोलकर अगीतार्थ को भी सुनावे । अनेक के समीप आलोचना करे- दोष की आलोचना एक के पास ही करनी चाहिये, किन्तु जिन दोषों की आलोचना पहले कर चुका है उन्हीं दोषों की आलोचना दूसरों के पास करे । अगीतार्थ के पास आलोचना करे- आलोचना गीतार्थ के पास ही करनी चाहिये किन्तु ऐसा न करके अगीतार्थ के पास आलोचना करे । दोषसेवी के पास आलोचना करे- मैंने जिस दोष का सेवन किया है उसी दोष का सेवन गुरुजी ने भी किया है अतः मैं उन्हीं के पास आलोचना करूं- क्योंकि ऐसा करने से वे कुछ कम प्रायश्चित्त देंगे । [९२८ ] दश स्थान ( गुण) सम्पन्न अणगार अपने दोषों की आलोचना करता है, यथा - जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न शेष अष्टमस्थानक समान यावत् क्षमाशील, दमनशील, अमायी, अपश्चात्तापी लेने के पश्चात् पश्चात्ताप न करने वाला ।
दश स्थान (गुण) सम्पन्न अणगार आलोचना सुनने योग्य होता है । यथा - आचारवान् अवधारणावान्, व्यवहारवान्, अल्पव्रीडक-आलोचक की लज्जा दूर कराने वाला, जिससे आलोचक सुखपूर्वक आलोचना कर सके । शुद्धि करने में समर्थ, आलोचक की शक्ति के अनुसार प्रायश्चित्त देने वाले, आलोचक के दोष दूसरों को न कहने वाला, दोष सेवन से अनिष्ट होता है ऐसा समझा सकनेवाला, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी ।
प्रायश्चित्त दश प्रकार का है, यथा-आलोचना योग्य, यावत् अनवस्थाप्यार्ह - जिस दोष की शुद्धि साधु को अमुक समय तक व्रतरहित रखकर पुनः व्रतारोपण रूप प्रायश्चित्त से हो । और पारंचिकाई - गृहस्थ के कपड़े पहनाकर जो प्रायश्चित्त दिया जाय ।
[९२५] मिथ्यात्व दश प्रकार का है, यथा-अधर्म में धर्म की बुद्धि, धर्म में अधर्म की बुद्धि, उन्मार्ग में मार्ग की बुद्धि, मार्ग में उन्मार्ग की बुद्धि, अजीव में जीव की बुद्धि, जीव में अजीव की बुद्धि, असाधु में साधु की बुद्धि, साधु में असाधु की बुद्धि, अमूर्त में मूर्त की बुद्धि, मूर्त में अमूर्त की बुद्धि ।
[ ९३०] चन्द्रप्रभ अर्हन्त दश लाख पूर्व का पूर्णायु भोग कर सिद्ध यावत् मुक्त हुए । धर्मनाथ अर्हन्त दश लाख वर्ष का पूर्णायु भोगकर सिद्ध यावत् मुक्त हुए । नमिनाथ अर्हत दश हजार वर्ष का पूर्णायु भोगकर सिद्ध यावत् मुक्त हुए ।
पुरुषसिंह वासुदेव दश लाख वर्ष का पूर्णायु भोगकर छट्ठी तमा पृथ्वी में नैरयिक रूप में उत्पन्न हुए ।
नेमनाथ अर्हन्त दश धनुष के ऊँचे थे और दश सौ (एक हजार) वर्ष का पूर्णायु भोगकर सिद्ध यावत् मुक्त हुए ।