Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 169
________________ १६८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सहित स्तनित कुमार पर्यन्त उत्पात पर्वतों का प्रमाण कहना चाहिए । असुरेन्द्रों और लोकपालों के नामों के समान उत्पात पर्वतों के नाम कहने चाहिए । देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र का शक्रप्रभ उत्पात पर्वत दस हजार योजन ऊँचा है । दस हजार गाऊ भूमि में गहरा है । मूल में दस हजार योजन चौड़ा है । इसी प्रकार शक्रेन्द्र के लोकपालों के उत्पात पर्वतों का प्रमाण है । इसी प्रकार अच्युत पर्यन्त सभी इन्द्रों और लोकपालों के उत्पात पर्वतों का प्रमाण है । [९२०] बादर वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना दश सौ एक हजार योजन की है । जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना दश सौ (एक हजार) योजन की है । स्थलचर उरपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना भी इतनी ही है । [९२१] संभवनाथ अर्हन्त की मुक्ति के पश्चात् दश लाख क्रोड़ सागरोपम व्यतीत होने पर अभिनन्दन अर्हन्त उत्पन्न हुए । [९२२] अनन्तक दश प्रकार के हैं, यथा-नाम अनन्तक-सचित्त या अचित्त वस्तु का अनन्तक नाम । स्थापना अनन्तक–अक्ष आदि में किसी पदार्थ में अनन्त की स्थापना । द्रव्य अनन्तक जीव द्रव्य या पुद्गल द्रव्य का अनन्तपना । गणना-अनन्तक एक, दो, तीन इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त पर्यन्त गिनती करना । प्रदेश अनन्तक-आकाश प्रदेशों का अनन्तपना । एकतोऽनंतक-अतीत काल अथवा अनागत काल । द्विधा-अनन्तकसर्वकाल । देश विस्तारानन्तक-एक आकाश प्रतर । सर्व विस्तारानन्तक-सर्व आकाशास्तिकाय । शास्वतानन्तक-अक्षय जीवादि द्रव्य । [९२३] उत्पाद पूर्व के दश वस्तु (अध्ययन) हैं । अस्तिनास्ति प्रवादपूर्व के दश चूल वस्तु (लघु अध्ययन) हैं। [९२४] प्रतिषेवना (प्राणातिपात आदि पापों का सेवन) दश प्रकार की हैं । यथा [९२५] दर्प प्रतिषेवना-दर्पपूर्वक दौड़ने या वध्यादि कर्म करने से । प्रमाद प्रतिषेवनाहास्य विकथा आदि प्रमाद से अनाभोग प्रतिषेवना-आतुर प्रतिषेवना-स्वयं की या अन्य की चिकित्सा हेतु । आपत्ति प्रतिषेवना-विपद्ग्रस्त होने से । शंकित प्रतिषेवना-शुद्ध आहारादि में अशुद्ध की शंका होने पर भी ग्रहण करने से । सहसात्कार प्रतिषेवना-अकस्मात् दोष लग जाने से । भयप्रतिषेवना-राजा चोर आदि के भय से । प्रद्वेषप्रतिषेवना-क्रोधादि कषाय की प्रबलता से । विमर्श प्रतिषेवना-शिष्यादि की परीक्षा के हेतु । [९२६] आलोचना के दश दोष हैं, यथा [९२७] अनुकम्पा उत्पन्न करके आलोचना करे-आलोचना लेने के पहले गुरु महाराज की सेवा इस संकल्प से करे कि ये मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मेरे पर अनुकम्पा करके कुछ कम प्रायश्चित्त देंगे । अनुमान करके आलोचना करे ये आचार्यादि मृत्यु दण्ड देने वाले हैं या कठोर दण्ड देने वाले हैं, यह अनुमान से जानकर मृदु दण्ड मिलने की आशा से आलोचना करे । मेरा दोष इन्होने देख लिया है ऐसा जानकर आलोचना करे-आचार्यादि ने मेरा यह दोषसेवन देख तो लिया ही है अब इसे छिपा नहीं सकता अतः मैं स्वयं इनके समीप जाकर अपने दोष की आलोचना करलूँ इससे ये मेरे पर प्रसन्न होंगे-ऐसा सोचकर आलोचना करे किन्तु दोष सेवी को ऐसा अनुभव हो कि आचार्यादि ने मेरा दोष सेवन देखा नहीं है है, ऐसा विचार करके

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