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समवाय- १/१
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हैं । जो सर्व जगत् के जानने से सर्वज्ञ और सर्वलोक के देखने से सर्वदर्शी हैं । जो अचल, अरुज, (रोग-रहित) अनन्त, अक्षय, अव्याबाध ( बाधाओं से रहित ) और पुनः आगमन से रहित ऐसी सिद्ध-गति नाम के अनुपम स्थान को प्राप्त करने वाले हैं । ऐसे उन भगवान् महावीर ने यह द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक कहा है ।
वह इस प्रकार है- आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्या- प्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक - श्रुत, और दृष्टिवाद । उस द्वादशांग श्रुतरूप गणिपिटक में यह समवायांग चौथा अंग कहा गया है, उसका अर्थ इस प्रकार है- आत्मा एक है, अनात्मा एक है, दंड एक है, अदंड एक है, क्रिया एक है, अक्रिया एक है, लोक एक है, अलोक एक है, धर्मास्तिकाय एक है, अधर्मास्तिकाय एक है, पुण्य एक है, पाप एक है, बन्ध एक है, मोक्ष एक है, आस्त्रव एक है, संवर एक है, वेदना एक है और निर्जरा एक है ।
जम्बूद्वीप नामक यह प्रथम द्वीप आयाम ( लम्बाई) और विष्कम्भ (चौड़ाई) की अपेक्षा शतसहस्त्र (एक लाख) योजन विस्तीर्ण कहा गया है । सौधर्मेन्द्र का पालक नाम का यान ( यात्रा के समय उपयोग में आने वाला पालक नाम के आभियोग्य देव की विक्रिया से निर्मित विमान) एक लाख योजन आयाम - विष्कम्भ वाला कहा गया है । सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर महाविमान एक लाख योजन आयाम - विष्कम्भ वाला कहा गया है ।
आर्द्रा नक्षत्र एक तारा वाला कहा गया है । चित्रा नक्षत्र एक तारा वाला कहा गया है । स्वाति नक्षत्र एक तारा वाला कहा गया है ।
इसी रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है । असुरकुमार देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक सागरोपम कही गई है । असुरकुमारेन्द्रों को छोड़ कर शेष भवनवासी कितनेक देवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है । कितनेक असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है । कितनेक असंख्यात वर्षायुष्क गर्भोपक्रान्तिक संज्ञी मनुष्यों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है ।
वान- व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम कही गई है । ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष से अधिक एक पल्योपम कही गई है । सौधर्मकल्प में देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम कही गई है । सौधर्मकल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम कही गई है । ईशानकल्प में देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम कही गई है । ईशानकल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम कही गई है ।
जो देव सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, मनु, मानुषोत्तर और लोकहित नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम कही गई है । वे देव एक अर्धमास में (पन्द्रह दिन में) आन-प्राण अथवा उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं । उन देवों के एक हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो एक मनुष्य भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ।
परम
समवाय- १ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण